कर्म का लेखा-जोखा: भगवद गीता श्लोक 40 से सीखें जीवन का असली धर्म
By -Observation- Mantra
जून 19, 2025
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Reversible Actions, Irreversible Outcomes
मुझे आज भी याद है — कॉलेज के दिनों का एक दोस्त, जो परीक्षा में चीटिंग करते पकड़ा गया था। वो कोई बुरा इंसान नहीं था, बस एक पल का डर, और उसने गलत रास्ता चुन लिया। बाद में वो पढ़ाई में अव्वल रहा, अपने जूनियर्स को भी गाइड करता था। लेकिन जब कभी वो उस घटना को याद करता था, तो उसकी आँखों में हल्की-सी शर्म और एक कसक अब भी दिखती थी।
यही तो गीता का श्लोक 40 कहता है — कि तुम कितने भी आगे बढ़ जाओ, तुम्हारे किए गए कर्म पीछे नहीं हटते।
कर्म की दिशा एकतरफा है
यह दुनिया और इसका नियम सीधा है: संसारति इति संसारः — संसार वह है जो निरंतर चलता है। एक बार कोई कर्म कर दिया, वह ब्रह्मांड की गूँज में दर्ज हो गया। जैसे कोई पत्थर तालाब में फेंको, और उसकी लहरें दूर तक फैलती हैं।
कोई कहेगा — "मैंने माफ़ी मांग ली, मैंने बहुत अच्छे काम भी किए... क्या वो एक गलती मिट नहीं सकती?" — गीता की दृष्टि में नहीं। अच्छे काम का फल अलग, बुरे का अलग। यह कोई बैलेंस शीट नहीं है जहाँ क्रेडिट और डेबिट काटकर नेट वैल्यू निकले।
ठीक उसी तरह जैसे कोई राजनेता शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव लाता है लेकिन अगर उसने एक भी निर्दोष की आवाज दबाई है, तो इतिहास दोनों बातें दर्ज करता है। एक पॉज़िटिव सुनहरी इबारत, और दूसरी—एक काली छाया।
एक बार किया गया कर्म — वापस नहीं आता
हम इसे thermodynamics के arrow of time से भी समझ सकते हैं। टूटा हुआ कप फिर जुड़ सकता है, लेकिन उसमें लगा effort, वो energy, वो तनाव — सब कुछ irreversibly जुड़ता चला जाता है।
शायद इसीलिए, गीता कहती है — “हर प्रयास मायने रखता है।” लेकिन यह लाइन कोई ढांढस नहीं है। यह चेतावनी भी है। कि हम चाहे जितना भी कम करें, वो भी गिना जाएगा। और जो किया नहीं, उसका भी हिसाब रहेगा।
कई लोग इस श्लोक को बहाना बना लेते हैं — “थोड़ा-सा ही काफी है न?” लेकिन असल में यह न्यूनतम को नहीं, नियत की शुद्धता को महत्व देता है। कि तुमने किया क्यों? डर से, दिखावे से, या एक सच्चे भाव से?
यही बात हमें बताती है कि कर्म कोई ऑन/ऑफ स्विच नहीं है — यह एक नदी है, और हम सब उसमें तैर रहे हैं। रुकना, उल्टा बहना, या धोखा देना — इनका कोई रास्ता नहीं।
याद रखो, परिणाम स्थायी नहीं — लेकिन असर होते हैं
कभी-कभी एक शब्द, एक टिप्पणी, एक ट्वीट — सामने वाले की ज़िंदगी बदल देता है। सोशल मीडिया पर हेट कमेंट डिलीट हो जाए, लेकिन जिसे लगा वो आघात... वो अंदर गूंजता रहेगा।
ठीक वैसे ही जैसे AI और automation ने एक बार समाज में प्रवेश किया, अब पीछे जाना मुमकिन नहीं। हमें अनुकूल होना होगा, नहीं तो बह जाना तय है।
तो फिर क्या करें? वही जो गीता कहती है: अभी, यहीं, पूरी ईमानदारी से, कर्म करते जाओ। हर क्षण को महत्व दो। हर निर्णय को जिम्मेदारी से देखो।
क्योंकि यह जीवन कोई वीडियो गेम नहीं है जिसमें पिछले सेव पॉइंट पर जाकर फिर से शुरू कर लिया जाए।
अगली कड़ी: “No Bypass Lane on the Karmic Highway” — क्या अच्छे काम बुरे कर्म को संतुलित कर सकते हैं? या दोनों का फल अलग-अलग भोगना ही होगा?
true
संसार की दिशा: केवल आगे – एक अपरिवर्तनीय यात्रा
कभी सोचा है कि टूटा हुआ प्याला अपने आप जुड़ क्यों नहीं सकता? या फिर बीते हुए पल वापस क्यों नहीं आते? भौतिकी के दूसरे नियम—Second Law of Thermodynamics—की तरह ही, जीवन भी एक तरफ़ा रास्ता है। यही बात भगवद गीता अध्याय 2 श्लोक 40 में गहराई से कह दी गई है।
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥"
यह श्लोक केवल 'धर्म' के पुण्य की बात नहीं करता। यह उस अपरिवर्तनीय दिशा की बात करता है, जिसमें जीवन और कर्म आगे बढ़ते हैं। जिस तरह एक टूटी हुई वस्तु को पुनः जोड़ने में अधिक ऊर्जा लगती है, वैसे ही कर्म का उल्टा प्रभाव कभी संभव नहीं होता।
"संसरति इति संसारः" – संसार का अर्थ ही है गति
मेरे एक शिक्षक कहा करते थे, “जग चलता है, क्योंकि रुका नहीं जा सकता।” यह बात साधारण लग सकती है, लेकिन जब आप जीवन की उलझनों में फँसे होते हैं, तो यही सूत्र सबसे सच्चा लगता है। आप एक बार ग़लत निर्णय ले लें, तो उसका परिणाम आपको भुगतना ही होगा – भले आप बाद में कुछ अच्छा कर लें। दोनों के फल मिलेंगे, अलग-अलग।
उदाहरण के तौर पर, एक राजनेता जिसने युवाओं से झूठे वादे किए, बाद में भले ही ईमानदारी से काम करे – लेकिन जनता उसका पुराना कर्म नहीं भूलती। राजनीतिक परिणाम दोनों कर्मों के फल से तय होते हैं।
धर्म और विज्ञान की यह अद्भुत संगति
आपको जानकर हैरानी होगी कि गीता का यह दृष्टिकोण आधुनिक विज्ञान से कितना मेल खाता है। Arrow of Time नामक सिद्धांत यही कहता है – समय केवल आगे चलता है, पीछे नहीं। तो फिर क्या हम कर्मफल से बच सकते हैं? नहीं।
मैं खुद कई बार सोचता था – क्या मैं पुराने ग़लत फैसलों को आज की भलाई से "निल" कर सकता हूँ? लेकिन धीरे-धीरे समझ में आया कि जीवन ऐसा ऑडिट नहीं है जहाँ प्लस-माइनस कर के बैलेंस बन जाए। दोनों को अलग-अलग चुकाना होता है।
इस श्लोक से हमें क्या सीखना चाहिए?
1. हर कर्म का फल निश्चित है, चाहे वह दिखे या नहीं।
2. अच्छा और बुरा दोनों फल अलग-अलग भोगना होता है। 3. उल्टा चलना असंभव है – चाहे मनुष्य हो, समाज हो या ब्रह्मांड।
4. धर्म का छोटा-सा प्रयास भी हमें भय से बचा सकता है – क्योंकि वह हमें गति की सही दिशा में ले जाता है।
अंतिम सोच
आज जब हम समाज में "अच्छा बनाम बुरा" के जाल में उलझे हैं, तो यह श्लोक हमें याद दिलाता है कि धर्म कोई जजमेंट नहीं है, बल्कि एक दिशा है – आगे की। आप जो भी करते हैं, वह अनिवार्य रूप से किसी न किसी दिशा में आपको ले जा रहा है।
तो अगली बार जब आप कोई निर्णय लें, सोचिए – क्या यह आपको सही दिशा में आगे ले जाएगा?
मैं आज भी उस घटना को नहीं भूल पाया हूँ — स्कूल के दिनों में मेरा एक बहुत करीबी दोस्त, जिसे हम सब एक ईमानदार छात्र मानते थे, एक दिन परीक्षा में नकल करता पकड़ा गया। आप सोच रहे होंगे, "फिर क्या हुआ?" हाँ, उसने माफ़ी मांगी, खुद को बदला, और आगे चलकर वह पूरे स्कूल का टॉपर बना। लेकिन... लेकिन भीतर कुछ था जो उसने कभी नहीं भुलाया — अपराधबोध।
असल में, यह वही बात है जो भगवद गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक 40 में कही गई है — "कर्म का कोई भी प्रयास व्यर्थ नहीं जाता, और यह पथ आपको भय से भी मुक्त करता है।" लेकिन इसका एक गूढ़ भाव यह भी है: आपने जो किया है, उसका असर रहेगा। आप चाहे जितना चाहें, अतीत को वापस नहीं मोड़ सकते।
जो बीत गया, वो लौटता नहीं
आपने कभी टूटी हुई चाय की प्याली को जोड़ने की कोशिश की है? शायद नहीं। और अगर की भी हो, तो वह पहले जैसी नहीं रही होगी। ठीक इसी तरह, Stanford Encyclopedia of Philosophy में वर्णित 'Arrow of Time' भी कहता है कि समय केवल एक ही दिशा में चलता है — आगे। यह केवल भौतिकी की बात नहीं है, यह जीवन का भी नियम है।
मेरा वह दोस्त, जिसने एक बार गलती की, बाद में लाख कोशिश करने के बाद भी अपने मन से उस दोष को पूरी तरह नहीं मिटा पाया। यह धर्म से विमुख होने जैसा है। एक बार जब हम अपने धर्म से हट जाते हैं, तो हमारे कर्म का चक्र उसी दिशा में घूमता रहता है। उसे रोकना या उलटना आसान नहीं होता।
एक पग आगे, दो नहीं पीछे
गीता यही कहती है कि कर्म का कोई भी प्रयास बेकार नहीं जाता। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप पुराने कर्म को मिटा सकते हैं। अच्छा करो, उसका फल मिलेगा। बुरा करो, उसका भी। पर दोनों एक-दूसरे को संतुलित नहीं कर सकते। हर कर्म का अपना परिणाम होता है — स्वतंत्र और अपरिवर्तनीय।
आज जब हम Seer-Mantra जैसे प्लेटफॉर्म पर लिखते हैं, या ब्लॉगिंग करते हैं, तो हम सोचते हैं — "क्या ये पोस्ट किसी पुराने पाप को धो सकती है?" शायद नहीं। पर हाँ, ये आगे के पथ को रोशन जरूर कर सकती है।
गुज़रे वक़्त से सबक
यहाँ सवाल यह नहीं कि आपने क्या खोया, बल्कि यह है कि आपने क्या सीखा। मेरे दोस्त ने सीखा कि जीवन आगे बढ़ता है — पर जो पीछे रह गया, वह कभी-कभी साए की तरह साथ चलता है। यही श्लोक 40 का मर्म है — कर्म का हर प्रयास सार्थक है, लेकिन हर प्रयास के साथ एक जिम्मेदारी भी जुड़ी है।
तो अगली बार जब आप सोचें कि एक गलती को दूसरी अच्छाई से मिटाया जा सकता है, रुकिए... और सोचिए — क्या आप समय को वापस ला सकते हैं?
यही जीवन की गहराई है, और यही गीता की शिक्षा — अपरिवर्तनीय कर्मों की दुनिया में आगे बढ़ते रहना ही धर्म है।
No Bypass Lane on the Karmic Highway
एक बार की बात है — एक बुज़ुर्ग पंडित जी ने मुझे कहा था, “पुत्र, धर्म और कर्म का लेखा-जोखा बड़ा सूक्ष्म होता है। यहाँ कोई छूट नहीं मिलती।” तब तो बात समझ नहीं आई थी, पर अब लगता है... शायद गीता का यही तो भाव था।
भगवद गीता अध्याय 2, श्लोक 40 कहता है कि जो कर्म किया गया है, वह मिटाया नहीं जा सकता — न अच्छे से बुरे को, न बुरे से अच्छे को। ये कोई स्कूल का रिपोर्ट कार्ड नहीं जिसमें नंबर बढ़ा दिए जाएँ। कर्म का अपना एक गणित है — और वो बड़ा न्यायपूर्ण होता है।
राजनीति का एक चेहरा — जहाँ अच्छाई और बुराई दोनों टिके रहते हैं
भारत के एक प्रसिद्ध नेता का उदाहरण लीजिए — जिन्होंने भारत को हरित क्रांति दी, खाद्य उत्पादन बढ़ाया, आत्मनिर्भरता को बढ़ावा दिया। पर वही नेता आपातकाल के दौरान प्रेस की आज़ादी को दबाने और लोकतांत्रिक संस्थाओं को कुचलने के लिए भी जाने जाते हैं। जनता आज भी दोनों को याद रखती है — सेवा और अन्याय। दोनों का हिसाब अलग-अलग होता है। एक अच्छा कर्म दूसरे को मिटाता नहीं, बस अपनी जगह रखता है।
यही बात गीता में कही गई है — नेतृत्व और नैतिक जिम्मेदारी पर आधारित हमारे पिछले लेख में भी यही दृष्टिकोण उभर कर आया था।
“पुण्य से पाप नहीं मिटता” — यह विचार क्यों महत्वपूर्ण है?
कई बार हमने सुना है — “गलती हो गई थी, अब कुछ दान कर देंगे या किसी अच्छे काम में हाथ बंटा देंगे।” पर क्या इससे बीते कर्म की छाया मिट जाती है? गीता कहती है — नहीं। हर कर्म का फल मिलेगा, ठीक वैसा ही जैसा उसका स्वभाव है।
यह विचार हमें superficial redemption से बचाता है। यह हमें अपने कर्मों की ज़िम्मेदारी लेने के लिए प्रेरित करता है। अगर आपने किसी को चोट पहुँचाई है, तो केवल मंदिर में दिया जलाने से बात नहीं बनेगी। आपको उस व्यक्ति से क्षमा माँगनी होगी, अपने भीतर झाँकना होगा।
समाज, मीडिया और ब्लॉगिंग में इसका क्या अर्थ है?
आज की डिजिटल दुनिया में भी कई बार हम ऐसे उदाहरण देखते हैं जहाँ लोग एक वायरल गलती के बाद कुछ ‘feel-good’ पोस्ट करके अपनी छवि सुधारने की कोशिश करते हैं। पर इंटरनेट कुछ नहीं भूलता — और गीता भी नहीं। आपने जो किया है, उसका मूल्य चुकाना ही पड़ेगा — चाहे प्रशंसा मिले या आलोचना।
सबसे पहला कदम है — स्वीकार करना। गीता कहती है, कर्म करो, लेकिन फल की चिंता मत करो। पर यह भी कहती है कि किए गए कर्म का फल तो मिलेगा। इसलिए जीवन में अच्छे काम करना बेहद जरूरी है — पर वो कर्म-क्षमा के साधन नहीं, बल्कि कर्तव्यबोध से प्रेरित होने चाहिए।
कोई शॉर्टकट नहीं है। न कर्म से बचने का, न उसके फल से। कर्म की गाड़ी वन-वे है — और उसमें कोई यू-टर्न नहीं।
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन..." – ये पंक्तियाँ जब पहली बार मैंने सुनी थीं, शायद स्कूल में, तब बस रट लिया था। लेकिन वर्षों बाद, जब एक अधूरी किताब बार-बार याद आने लगी, तो इसका असली मतलब समझ में आया।
कुछ साल पहले मैंने एक किताब शुरू की थी – सामाजिक अन्याय पर आधारित थी, सच्ची कहानियों पर। शुरुआत में जोश था, रिसर्च भी किया, एक दो अध्याय भी लिख डाले। फिर डर बैठ गया दिल में – क्या लोग पढ़ेंगे? क्या backlash होगा?
और मैंने वो फाइल बंद कर दी... पर दिल में वो अधूरापन अब भी गूंजता है। जैसे अर्जुन युद्धभूमि से हटने का सोच रहा था, वैसे ही मैं भी अपने लेखन धर्म से हट गया था।
गीता का वचन: प्रयास व्यर्थ नहीं जाता
भगवद गीता अध्याय 2, श्लोक 40 कहती है – इस मार्ग पर कोई प्रयास व्यर्थ नहीं जाता। (source) लेकिन साथ ही, यह भी बताती है कि जब हम रुक जाते हैं, तब भीतर एक अशांति जन्म लेती है।
यह अधूरापन केवल कार्य का नहीं होता, आत्मा का होता है। जो कार्य आपने शुरू किया था, वो केवल एक लक्ष्य नहीं था – वो आपकी पहचान का हिस्सा बन चुका था।
राजनीति और धर्म का द्वंद्व
आज की राजनीति में भी देखिए – कई नेता बदलाव की बात करते हैं, जनता को उम्मीद बंधाते हैं, लेकिन आधे रास्ते में या तो सत्ता का मोह उन्हें रोक लेता है या फिर आलोचना का डर। परिणाम? समाज फिर से उसी चक्र में घूमता रहता है।
गीता कहती है – "अधर्म से किया गया धर्म भी शांति नहीं लाता"। इसलिए जब हम अपना कार्य अधूरा छोड़ते हैं, तो वह केवल असफलता नहीं होती, वह आत्मिक पीड़ा बन जाती है।
लेखन का युद्धक्षेत्र और आत्मधर्म
लेखक का धर्म केवल लिखना नहीं, सत्य को साझा करना है। अगर आपने एक विचार को आवाज दी, तो उसे बीच में छोड़ देना केवल डर को जीत देना है।
मेरे जैसे कई लेखक, ब्लॉगर या पत्रकार अपने डर के कारण कई बार चुप रह जाते हैं। लेकिन वो चुप्पी, बाद में अपराधबोध बनकर लौटती है।
अधूरे कर्म की परिणति
जब भी आप कोई धर्म-सम्मत कार्य बीच में छोड़ देते हैं, तो वह केवल आपके जीवन में एक अधूरा अध्याय नहीं बनता। वह एक अधूरी चेतना बनकर बार-बार सवाल करता है – "क्या तुमने सच में अपना धर्म निभाया?"
और फिर, वर्षों बाद भी, जब आप किसी लेख या घटना से टकराते हैं, तो वो पुरानी फाइल आपके दिमाग में खुल जाती है... और गीता की वो बात फिर से गूंजती है: "कोई प्रयास व्यर्थ नहीं जाता।"
अब शायद फिर से उस अधूरी किताब की फाइल खोलनी चाहिए...
संसार एक स्थान नहीं, एक प्रवाह है
“संसार” — ये शब्द सुनते ही हमारे मन में क्या छवि आती है? कोई गोल-गोल चक्र? पुनर्जन्म का अंतहीन सिलसिला? लेकिन अगर संस्कृत की मूल जड़ों में जाकर देखें, तो यह शब्द “संसरति” से आया है — जिसका अर्थ होता है, “जो लगातार चलता रहता है।”
सच कहें तो, जीवन कोई बंद लूप नहीं है। ये एक नदी है — एक दिशा में बहती हुई धारा। और जैसे ही हम इस धारा में कदम रखते हैं, हर निर्णय, हर चुप्पी, हर प्रतिक्रिया — सब कुछ मायने रखता है।
कर्म की नदी में ठहराव भी एक क्रिया है
मैंने एक बार एक शिक्षक से सुना था — "अगर तुम बहाव में कुछ नहीं कर रहे हो, तो तुम उल्टा नहीं जा रहे। लेकिन तुम भी किसी तरह का प्रभाव पैदा कर रहे हो।" उस वाक्य ने मुझे हिला कर रख दिया।
हम अक्सर सोचते हैं कि चुप रहना, तटस्थ होना, किसी मुद्दे पर रुक जाना — ये सब 'कुछ न करना' है। लेकिन कर्म की धारा में ठहरना भी एक कर्म है। उसकी भी प्रतिक्रिया होती है। और यही है गीता का श्लोक 40 का भाव — हर प्रयास फलदायी है, भले अधूरा ही क्यों न हो।
क्या समय वास्तव में अस्तित्व में है?
अब थोड़ा गहराई में चलते हैं। कभी आपने सोचा है कि समय क्या वाकई में कोई वस्तु है? या यह केवल हमारी चेतना का निर्माण है? दार्शनिक दृष्टिकोण कहता है कि समय वस्तुनिष्ठ नहीं, बल्कि अनुभव आधारित है।
अगर समय एक 'प्रवाह' है — जैसा कि गीता का दृष्टिकोण है — तो हम हर पल, हर निर्णय के साथ उस प्रवाह में अपनी दिशा तय कर रहे होते हैं।
क्या कर्म न्यायपूर्ण होता है?
बहुत लोग पूछते हैं — "मैंने तो किसी का बुरा नहीं किया, फिर मेरे साथ बुरा क्यों हुआ?" यही प्रश्न तो अर्जुन का भी था।
पर गीता कहती है — कर्म का गणित हमारे अहंकार से बड़ा है। न्याय हमारे हिसाब से नहीं, प्रकृति के संतुलन के आधार पर होता है।
पुनरावृत्ति नहीं, परिणाम
हम अक्सर सोचते हैं कि अगर हमने कोई गलती की, तो उसे 'अच्छे कर्म' से मिटाया जा सकता है। लेकिन जैसा कि पिछले पोस्ट में लिखा — अच्छे और बुरे कर्म एक-दूसरे को रद्द नहीं करते। वे दोनों अपनी जगह खड़े रहते हैं, अपनी प्रतिक्रिया के साथ।
संसार कोई 'ठहराव' नहीं है। यह एक उफनती हुई नदी है। इसमें अगर आप चुपचाप खड़े हैं, तो भी उसकी दिशा तय होती है। अगर आप तैर रहे हैं, तो हर हाथ का मार भी एक लहर पैदा करता है।
और जब कुछ नहीं करते, तब भी कुछ हो रहा होता है…
इस पर विचार कीजिए — आपने कभी एक दोस्त से झूठ बोला था, वह बात पुरानी हो चुकी है। लेकिन जब आज उसकी आंखों में देखना होता है, तो कहीं भीतर कुछ चुभता है। यही है संसार — चलती धारा, जो कभी पीछे नहीं जाती, लेकिन पीछे छोड़ा सब कुछ साथ लेकर बहती है।
अब सवाल यह नहीं कि क्या आप भाग लेंगे?
सवाल यह है कि जब आप भाग नहीं लेते, तब भी क्या आप जिम्मेदार हैं? जवाब है — हां। क्योंकि संसरति का अर्थ ही है — हर कण की प्रतिक्रिया। हर चुप्पी की भी। हर ठहराव की भी।
एक बार की बात है — एक बुज़ुर्ग पंडित जी ने मुझे कहा था, “पुत्र, धर्म और कर्म का लेखा-जोखा बड़ा सूक्ष्म होता है। यहाँ कोई छूट नहीं मिलती।” तब तो बात समझ नहीं आई थी, पर अब लगता है... शायद गीता का यही तो भाव था।
भगवद गीता अध्याय 2, श्लोक 40 कहता है कि जो कर्म किया गया है, वह मिटाया नहीं जा सकता — न अच्छे से बुरे को, न बुरे से अच्छे को। ये कोई स्कूल का रिपोर्ट कार्ड नहीं जिसमें नंबर बढ़ा दिए जाएँ। कर्म का अपना एक गणित है — और वो बड़ा न्यायपूर्ण होता है।
राजनीति का एक चेहरा — जहाँ अच्छाई और बुराई दोनों टिके रहते हैं
भारत के एक प्रसिद्ध नेता का उदाहरण लीजिए — जिन्होंने भारत को हरित क्रांति दी, खाद्य उत्पादन बढ़ाया, आत्मनिर्भरता को बढ़ावा दिया। पर वही नेता आपातकाल के दौरान प्रेस की आज़ादी को दबाने और लोकतांत्रिक संस्थाओं को कुचलने के लिए भी जाने जाते हैं। जनता आज भी दोनों को याद रखती है — सेवा और अन्याय। दोनों का हिसाब अलग-अलग होता है। एक अच्छा कर्म दूसरे को मिटाता नहीं, बस अपनी जगह रखता है।
यही बात गीता में कही गई है — नेतृत्व और नैतिक जिम्मेदारी पर आधारित हमारे पिछले लेख में भी यही दृष्टिकोण उभर कर आया था।
“पुण्य से पाप नहीं मिटता” — यह विचार क्यों महत्वपूर्ण है?
कई बार हमने सुना है — “गलती हो गई थी, अब कुछ दान कर देंगे या किसी अच्छे काम में हाथ बंटा देंगे।” पर क्या इससे बीते कर्म की छाया मिट जाती है? गीता कहती है — नहीं। हर कर्म का फल मिलेगा, ठीक वैसा ही जैसा उसका स्वभाव है।
यह विचार हमें superficial redemption से बचाता है। यह हमें अपने कर्मों की ज़िम्मेदारी लेने के लिए प्रेरित करता है। अगर आपने किसी को चोट पहुँचाई है, तो केवल मंदिर में दिया जलाने से बात नहीं बनेगी। आपको उस व्यक्ति से क्षमा माँगनी होगी, अपने भीतर झाँकना होगा।
समाज, मीडिया और ब्लॉगिंग में इसका क्या अर्थ है?
आज की डिजिटल दुनिया में भी कई बार हम ऐसे उदाहरण देखते हैं जहाँ लोग एक वायरल गलती के बाद कुछ ‘feel-good’ पोस्ट करके अपनी छवि सुधारने की कोशिश करते हैं। पर इंटरनेट कुछ नहीं भूलता — और गीता भी नहीं। आपने जो किया है, उसका मूल्य चुकाना ही पड़ेगा — चाहे प्रशंसा मिले या आलोचना।
सबसे पहला कदम है — स्वीकार करना। गीता कहती है, कर्म करो, लेकिन फल की चिंता मत करो। पर यह भी कहती है कि किए गए कर्म का फल तो मिलेगा। इसलिए जीवन में अच्छे काम करना बेहद जरूरी है — पर वो कर्म-क्षमा के साधन नहीं, बल्कि कर्तव्यबोध से प्रेरित होने चाहिए।
कोई शॉर्टकट नहीं है। न कर्म से बचने का, न उसके फल से। कर्म की गाड़ी वन-वे है — और उसमें कोई यू-टर्न नहीं।
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन..." – ये पंक्तियाँ जब पहली बार मैंने सुनी थीं, शायद स्कूल में, तब बस रट लिया था। लेकिन वर्षों बाद, जब एक अधूरी किताब बार-बार याद आने लगी, तो इसका असली मतलब समझ में आया।
कुछ साल पहले मैंने एक किताब शुरू की थी – सामाजिक अन्याय पर आधारित थी, सच्ची कहानियों पर। शुरुआत में जोश था, रिसर्च भी किया, एक दो अध्याय भी लिख डाले। फिर डर बैठ गया दिल में – क्या लोग पढ़ेंगे? क्या backlash होगा?
और मैंने वो फाइल बंद कर दी... पर दिल में वो अधूरापन अब भी गूंजता है। जैसे अर्जुन युद्धभूमि से हटने का सोच रहा था, वैसे ही मैं भी अपने लेखन धर्म से हट गया था।
गीता का वचन: प्रयास व्यर्थ नहीं जाता
भगवद गीता अध्याय 2, श्लोक 40 कहती है – इस मार्ग पर कोई प्रयास व्यर्थ नहीं जाता। (source) लेकिन साथ ही, यह भी बताती है कि जब हम रुक जाते हैं, तब भीतर एक अशांति जन्म लेती है।
यह अधूरापन केवल कार्य का नहीं होता, आत्मा का होता है। जो कार्य आपने शुरू किया था, वो केवल एक लक्ष्य नहीं था – वो आपकी पहचान का हिस्सा बन चुका था।
राजनीति और धर्म का द्वंद्व
आज की राजनीति में भी देखिए – कई नेता बदलाव की बात करते हैं, जनता को उम्मीद बंधाते हैं, लेकिन आधे रास्ते में या तो सत्ता का मोह उन्हें रोक लेता है या फिर आलोचना का डर। परिणाम? समाज फिर से उसी चक्र में घूमता रहता है।
गीता कहती है – "अधर्म से किया गया धर्म भी शांति नहीं लाता"। इसलिए जब हम अपना कार्य अधूरा छोड़ते हैं, तो वह केवल असफलता नहीं होती, वह आत्मिक पीड़ा बन जाती है।
लेखन का युद्धक्षेत्र और आत्मधर्म
लेखक का धर्म केवल लिखना नहीं, सत्य को साझा करना है। अगर आपने एक विचार को आवाज दी, तो उसे बीच में छोड़ देना केवल डर को जीत देना है।
मेरे जैसे कई लेखक, ब्लॉगर या पत्रकार अपने डर के कारण कई बार चुप रह जाते हैं। लेकिन वो चुप्पी, बाद में अपराधबोध बनकर लौटती है।
अधूरे कर्म की परिणति
जब भी आप कोई धर्म-सम्मत कार्य बीच में छोड़ देते हैं, तो वह केवल आपके जीवन में एक अधूरा अध्याय नहीं बनता। वह एक अधूरी चेतना बनकर बार-बार सवाल करता है – "क्या तुमने सच में अपना धर्म निभाया?"
और फिर, वर्षों बाद भी, जब आप किसी लेख या घटना से टकराते हैं, तो वो पुरानी फाइल आपके दिमाग में खुल जाती है... और गीता की वो बात फिर से गूंजती है: "कोई प्रयास व्यर्थ नहीं जाता।"
अब शायद फिर से उस अधूरी किताब की फाइल खोलनी चाहिए...
संसार एक स्थान नहीं, एक प्रवाह है
“संसार” — ये शब्द सुनते ही हमारे मन में क्या छवि आती है? कोई गोल-गोल चक्र? पुनर्जन्म का अंतहीन सिलसिला? लेकिन अगर संस्कृत की मूल जड़ों में जाकर देखें, तो यह शब्द “संसरति” से आया है — जिसका अर्थ होता है, “जो लगातार चलता रहता है।”
सच कहें तो, जीवन कोई बंद लूप नहीं है। ये एक नदी है — एक दिशा में बहती हुई धारा। और जैसे ही हम इस धारा में कदम रखते हैं, हर निर्णय, हर चुप्पी, हर प्रतिक्रिया — सब कुछ मायने रखता है।
कर्म की नदी में ठहराव भी एक क्रिया है
मैंने एक बार एक शिक्षक से सुना था — "अगर तुम बहाव में कुछ नहीं कर रहे हो, तो तुम उल्टा नहीं जा रहे। लेकिन तुम भी किसी तरह का प्रभाव पैदा कर रहे हो।" उस वाक्य ने मुझे हिला कर रख दिया।
हम अक्सर सोचते हैं कि चुप रहना, तटस्थ होना, किसी मुद्दे पर रुक जाना — ये सब 'कुछ न करना' है। लेकिन कर्म की धारा में ठहरना भी एक कर्म है। उसकी भी प्रतिक्रिया होती है। और यही है गीता का श्लोक 40 का भाव — हर प्रयास फलदायी है, भले अधूरा ही क्यों न हो।
क्या समय वास्तव में अस्तित्व में है?
अब थोड़ा गहराई में चलते हैं। कभी आपने सोचा है कि समय क्या वाकई में कोई वस्तु है? या यह केवल हमारी चेतना का निर्माण है? दार्शनिक दृष्टिकोण कहता है कि समय वस्तुनिष्ठ नहीं, बल्कि अनुभव आधारित है।
अगर समय एक 'प्रवाह' है — जैसा कि गीता का दृष्टिकोण है — तो हम हर पल, हर निर्णय के साथ उस प्रवाह में अपनी दिशा तय कर रहे होते हैं।
क्या कर्म न्यायपूर्ण होता है?
बहुत लोग पूछते हैं — "मैंने तो किसी का बुरा नहीं किया, फिर मेरे साथ बुरा क्यों हुआ?" यही प्रश्न तो अर्जुन का भी था।
पर गीता कहती है — कर्म का गणित हमारे अहंकार से बड़ा है। न्याय हमारे हिसाब से नहीं, प्रकृति के संतुलन के आधार पर होता है।
पुनरावृत्ति नहीं, परिणाम
हम अक्सर सोचते हैं कि अगर हमने कोई गलती की, तो उसे 'अच्छे कर्म' से मिटाया जा सकता है। लेकिन जैसा कि पिछले पोस्ट में लिखा — अच्छे और बुरे कर्म एक-दूसरे को रद्द नहीं करते। वे दोनों अपनी जगह खड़े रहते हैं, अपनी प्रतिक्रिया के साथ।
संसार कोई 'ठहराव' नहीं है। यह एक उफनती हुई नदी है। इसमें अगर आप चुपचाप खड़े हैं, तो भी उसकी दिशा तय होती है। अगर आप तैर रहे हैं, तो हर हाथ का मार भी एक लहर पैदा करता है।
और जब कुछ नहीं करते, तब भी कुछ हो रहा होता है…
इस पर विचार कीजिए — आपने कभी एक दोस्त से झूठ बोला था, वह बात पुरानी हो चुकी है। लेकिन जब आज उसकी आंखों में देखना होता है, तो कहीं भीतर कुछ चुभता है। यही है संसार — चलती धारा, जो कभी पीछे नहीं जाती, लेकिन पीछे छोड़ा सब कुछ साथ लेकर बहती है।
अब सवाल यह नहीं कि क्या आप भाग लेंगे?
सवाल यह है कि जब आप भाग नहीं लेते, तब भी क्या आप जिम्मेदार हैं? जवाब है — हां। क्योंकि संसरति का अर्थ ही है — हर कण की प्रतिक्रिया। हर चुप्पी की भी। हर ठहराव की भी।
मैंने अपने दादा जी से एक बात सुनी थी, जो आज भी दिल में गूंजती है—"बेटा, जो हो गया सो हो गया। लेकिन दोबारा मत दोहराना।" वो बात उस दिन कही गई थी जब मैंने क्लास में झूठ बोल दिया था, सिर्फ इस डर से कि डांट न पड़े। उन्होंने मुझे सजा नहीं दी। बस समझाया। और उस समझ में जो शांति थी, वो शायद गीता के उसी श्लोक 40 की व्याख्या थी।
गीता की दृष्टि: प्रतिशोध नहीं, प्रक्रिया
भगवद गीता अध्याय 2 श्लोक 40 हमें बताती है कि कोई भी कर्म निष्फल नहीं जाता। लेकिन बात केवल फल की नहीं है, बात दृष्टिकोण की है। हमें बदले की भावना से नहीं, भागीदारी की भावना से कर्म करना है। जब हम अतीत में उलझ जाते हैं, तब हम वर्तमान को खो देते हैं। और यही वास्तविक सज़ा होती है—न कि कोई दैवी दंड।
अतीत का पछतावा या वर्तमान की भागीदारी?
कभी-कभी हम सोचते हैं—काश मैंने ऐसा नहीं किया होता। लेकिन क्या हम वाकई उस समय वैसा न करने की स्थिति में थे? शायद नहीं। हमारी समझ, हमारी परवरिश, हमारा डर—सब मिलकर हमें उस निर्णय तक लाते हैं।
अब सवाल ये है: क्या पछताना ही रास्ता है? या हम स्वीकार कर सकते हैं—गलती हुई थी, लेकिन अब मैं बेहतर कर सकता हूँ। यही वह भाव है जो हमें मुक्त करता है।
एक कहानी: रीना की मुस्कान
रीना, मेरे एक परिचित की बेटी, कॉलेज में टॉपर थी। लेकिन एक बार एक साथी की असाइनमेंट कॉपी चुराकर जमा कर दी। पकड़ी गई। निलंबित हुई। साल बर्बाद हुआ।
लोगों ने उसे बहुत कुछ कहा। पर उसने पढ़ाई नहीं छोड़ी। दोबारा आई, और इस बार हर असाइनमेंट खुद लिखा। आज वो एक यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर है। लेकिन जब मैंने उससे पूछा, "क्या वो दिन भूल पाई हो?" तो उसने कहा, "नहीं। पर अब मैं भागती नहीं। मैं स्वीकारती हूँ।"
बदलाव का पहला कदम: स्वीकार
कभी-कभी हमें लगता है कि कर्म का अर्थ है—बुरा करो, तो बुरा होगा। लेकिन गीता यह नहीं कहती। वह कहती है कि हर कर्म का प्रभाव होता है।
और इस प्रभाव से मुक्त होने का रास्ता है—सजगता और स्वीकार। यही वह बिंदु है जहाँ से हम नए रास्ते की शुरुआत करते हैं।
आगे बढ़ने की नैतिक शक्ति
समाज में, राजनीति में, यहाँ तक कि ब्लॉगिंग में भी हम अक्सर पिछली गलतियों में उलझे रहते हैं। कोई लेख हटा देते हैं, कोई विचार दबा देते हैं। लेकिन क्या वही सही है? या उस लेख को अपडेट करना, उस विचार को विस्तार देना ज्यादा नैतिक होगा?
“अरे भाई, थोडा सा प्रयास भी काफी है?” इतना सुनते ही कई बार हमने रूका पेड़ पर फसल उगाने की कोशिश छोड़ी—“थोड़ा लगा, हो गया”। लेकिन गीता ऐसा नहीं कहती। यह कोई कम्फर्ट ज़ोन नहीं, बल्कि एक बुलावा है।
“इतना ही काफी है” — सच में?
अगर गीता सचमुच कहती कि “थोड़ा कोशिश करो, बाकी खुद हो जाएगा”, तो हम आधे सेशन में छोड़कर कहते, “काम हो गया, आराम करो।” लेकिन श्लोक 40 मुश्किलों का बहाना नहीं बनता—बल्कि ये लेकिन-dirctional चेतावनी है: हर कदम मायने रखता है, चाहे वो बड़ा हो या छोटा, क्योंकि विकल्प ही कर्म बनता है।
श्लोक शब्दों से आगे
“न तेनार्थः कर्मणोऽपि” — यहाँ “अपि” कम नहीं है, बल्कि ये जोड़ करता है: “इसे कम मत समझो।” गीता पढ़ने से समझ आया कि कर्म कोई हिसाब-किताब नहीं—ना हल्का, ना मिनटों में फिनिश लाइन। यह ‘Why Karma Isn’t a Transaction: A Gita-Centric View’ की तरह है—एक संवाद, एक रिश्ता, एक प्रतिबद्धता।
वादा और जिम्मेदारी का फर्क
गीता कहती है—“हाँ, तुम्हारा छोटा प्रयास भी बोझ नहीं जाएगा, लेकिन”—और इसके बाद “लेकिन” बहुत भारी है। जीवन में अक्सर छोटी-छोटी आदतें हमारी नैतिक दिशा तय करती हैं। बचपन में मेरी टीचर कहती थीं, “चटाई गीली हुई हो तो Crore नहीं।
अब सवाल ये है: क्या हम minimum viable effort डालकर खुद को सुकून दे सकते हैं? जवाब साफ है—कर्म गंभीर है, वह लेन-देन नहीं जहाँ आप नकद अगर पूरा रकम नहीं दे रहे तो छूट हो जाएगी।
उदाहरण: राजनीति में किरदार
किसी राजनीतिक नेता ने गरीबों के लिए कार्यक्रम शुरू किया—ये कमाल की बात है। लेकिन अगर वही नेता काले धन से चुनाव जीतता है, तो क्या हम कह सकते—“अच्छा काम तो किया?” नहीं। यहां कार्रवाई और परिणाम की गंभीरता ओरस्पष्ट हो जाती है। एक अच्छा कार्य पॉइंट नहीं, बचत नहीं, इस समाज की नैतिक पूंजी बनता है।
Blogging का सच
मैं अक्सर ब्लॉगर दोस्तों से कहता हूँ—“अगर सच में कुछ फर्क डालना चाहते हो, तो minimum पोस्ट ना लिखो।” ट्रेंड का चस्का सुकून दे सकता है, लेकिन मैं जानता हूँ—जो मुझसे निकले दिल से लिखा हो, उसकी गूँज कम नहीं होती।
शक्ति है विकल्प में
गीता हमें दो राह दिखाती है: एक राह आसान लग सकती है, लेकिन दूसरा रास्ता—वो मेहनत वाला, वो चयन वाला—वही हमें सच में आगे लेकर जाता है।
और याद रखिए—“श्लोक 40 वादा है, लेकिन वो वादा अधूरापन नहीं कहता; वह उत्साह का संकेत है, जिम्मेदारी का भार है।”
आधुनिक प्रतिबिंब: पर्यावरण संकट से लेकर ऑनलाइन नफरत तक
भगवद गीता का श्लोक 40 कहता है — “इस मार्ग में कोई प्रयास व्यर्थ नहीं जाता।” यह पंक्ति जितनी आध्यात्मिक लगती है, उतनी ही आधुनिक नैतिक चुनौतियों पर भी लागू होती है। आज हम जलवायु परिवर्तन, सोशल मीडिया और AI जैसे मुद्दों से जूझ रहे हैं—जिनमें एक बार किया गया कार्य, कई बार अनकिया नहीं जा सकता।
1. पर्यावरण संकट: जो पेड़ काटा, वो भविष्य छीन गया
आपने कभी सोचा है, जब कोई एक पेड़ काटता है तो वो क्या खोता है? केवल छाया या हवा नहीं—वो अपने बच्चों के बचपन की ताजगी, उस गाँव की शांति और पृथ्वी की सांस खो देता है। और यह क्रिया अपरिवर्तनीय है। इसे हम IPCC रिपोर्ट की भाषा में ‘point of no return’ कहते हैं।
गीता कहती है—“हर क्रिया मायने रखती है।” और जब हम पृथ्वी के संसाधनों का दुरुपयोग करते हैं, तो हमें सिर्फ प्रकृति से ही नहीं, धर्म से भी दूरी हो जाती है।
2. सोशल मीडिया की नफरत: शब्द हट सकते हैं, घाव नहीं
कभी-कभी कोई एक ट्वीट, एक टिप्पणी या एक मीम, इतना जहर भर देता है कि माफ़ी माँगने के बाद भी घाव रह जाता है। हम सोचते हैं, “डिलीट कर दिया, अब क्या फर्क पड़ेगा?” लेकिन जैसा कि गीता में कहा गया है—कर्म का फल अवश्य आता है।
आज के ऑनलाइन धर्म में, शब्दों की ज़िम्मेदारी उतनी ही भारी है जितनी तलवार की। एक गलत कमेंट, चाहे मस्ती में ही हो, किसी के आत्म-सम्मान को चोट पहुँचा सकता है।
3. AI और ऑटोमेशन: टेक्नोलॉजी को अन-इनवेंट नहीं किया जा सकता
AI आ चुका है—और तेजी से बढ़ रहा है। हम चाहें या न चाहें, रोबोट, ऑटोमेशन और जेनरेटिव टेक अब हमारे जीवन के हिस्से हैं। लेकिन सवाल यह नहीं है कि इसे रोका जाए। सवाल यह है—क्या हम इसे नैतिकता के साथ अपनाते हैं?
जैसे गीता हमें बताती है कि “कर्म की शक्ति” विकल्पों में नहीं, उस विकल्प के पीछे की भावना में होती है, वैसे ही टेक्नोलॉजी के साथ हमारी नियत तय करेगी कि यह वरदान बनेगा या अभिशाप।
एक अंतिम विचार: अनकिया नहीं जा सकता, लेकिन सुधारा जा सकता है
जीवन एक रिवाइंड बटन के साथ नहीं आता। लेकिन “बीता हुआ सुधार नहीं सकता”—ये मानना भी अधूरा है। गीता हमें न तो ग्लानि में जीने को कहती है, न ही लापरवाह होने को। वह हमें सिखाती है—हर निर्णय का मूल्य है, और हर मूल्य हमें आगे बढ़ाता है।
मैं रुका नहीं था, पर चलता भी नहीं था। कुछ ऐसा ही जीवन का एक मोड़ था, जब सबकुछ धुंधला लगने लगा था। न जाने कितनी बार पीछे मुड़कर देखा, सोचते हुए—क्या मैं कुछ बदल सकता था? क्या एक शब्द, एक निर्णय, एक चुप्पी... कम नुकसान पहुँचा सकती थी?
और फिर एक दिन, किसी एक शांत संध्या को मैंने पढ़ा—भगवद गीता का श्लोक 40, अध्याय 2:
"निहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥"
शब्द गूंजे, लेकिन अर्थ भीतर कहीं उतर गया। गीता कहती है—‘तुम्हारा कोई प्रयास व्यर्थ नहीं जाएगा।’ ये पंक्ति एक "पासवर्ड" नहीं थी जो मुझे दोष से बचा ले... ये एक निमंत्रण था—खुद को स्वीकार करने का, क्षमा देने का।
"मैं खुद को माफ कर सका..."
वो गलती मेरी थी। कोई दूसरा नहीं था जिसे दोष देता। पर सालों बाद, उस श्लोक को पढ़ते वक्त, एक अलग ही हल्कापन महसूस हुआ। मैंने सीखा कि अतीत को बदल नहीं सकते, लेकिन वर्तमान को दिशा जरूर दे सकते हैं।
मेरे दादाजी हमेशा कहा करते थे, “बेटा, जो हो गया, सो हो गया—लेकिन दोहराना मत।” उस वाक्य की गहराई आज जाकर समझ आई। यही तो है गीता का सन्देश।
ग्लानि नहीं, गरिमा के साथ चलना है
अक्सर हम अपने भीतर एक शोर पाल लेते हैं—"मैंने सही नहीं किया", "मुझे और अच्छा करना चाहिए था"। लेकिन क्या कर्म का अर्थ ही यही है? नहीं। गीता बताती है कि कर्म का फल होगा, लेकिन अगर हम निरंतर सही दिशा में चलते रहें, तो वह फल भी हमारी यात्रा का हिस्सा बन जाएगा, न कि बोझ।
आज मैं जब लिखता हूं, तो वो ग्लानि की चुभन नहीं रहती। बस एक सौम्य याद रहती है—कि चलना है, लड़खड़ाकर भी।
समाप्ति नहीं... एक मौन स्वीकृति
जब जीवन में बहुत कुछ कहा न जा सके, तब मौन बोलता है। शांति वहीं आती है, जब हम “undo” करने की चाह छोड़ दें। और गीता यही सिखाती है—जैसे हैं, वैसे स्वीकार करो।
अगर आप भी उस एक गलती को ढोते आ रहे हैं, जो आपको चैन से सोने नहीं देती—तो इस श्लोक को दोहराएं। और फिर खुद से कहें—“मैं अतीत नहीं बदल सकता। लेकिन मैं आगे चल सकता हूं। ग्लानि के साथ नहीं... गरिमा के साथ।”
अस्वीकरण: इस ब्लॉग पोस्ट में प्रस्तुत घटनाएँ, पात्र, संदर्भ और कथाएँ केवल विषय को समझाने के उद्देश्य से दी गई हैं। इनका उद्देश्य किसी व्यक्ति, संस्था या समूह को ठेस पहुँचाना नहीं है। यदि कोई समानता प्रतीत होती है तो वह संयोग मात्र है।
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