कभी सोचा है... क्या कोई प्रयास बेकार जाता है?
मैं नहीं जानता कि आप किस मोड़ पर हैं, लेकिन एक सवाल है जो हर किसी के दिल में कहीं न कहीं दबा होता है—“क्या जो मैंने किया... उसका कोई मतलब था?”
आपने कभी किसी पौधे को लगाया है, जो उगने से पहले ही सूख गया? या कोई कोशिश जो अधूरी रह गई? जैसे कोई सपना... जो पूरा होने से पहले ही बुझ गया?
मैंने किया है। और मैं भूल नहीं पाया।
वो शाम अब भी याद है, जब मैंने दिल्ली के एक थके-हारे अंधेरे दफ्तर से निकलते हुए सोचा था—“क्या ये सब बेकार जा रहा है?” एक महीना हो गया था, रिपोर्टिंग कर रहा था एक झुग्गी पुनर्वास प्रोजेक्ट पर। मेहनत की थी, पैर छाले से भर गए थे... लेकिन स्टोरी छपी नहीं।
एक बार को लगा, छोड़ दूं सब। घर लौट जाऊं।
फिर... एक रिक्शावाले ने रोक लिया। बोला—"भाई, आपने जो सवाल पूछा था टीवी के सामने... वो सबको सोचने पर मजबूर कर गया।”
बस, वही क्षण... गीता की ये पंक्ति मेरे भीतर गूंज गई:
“नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥”
(श्रीमद्भगवद्गीता 2.40)
कितनी सरल और गहरी बात... “इस पथ पर किया गया कोई भी प्रयास व्यर्थ नहीं जाता। न ही इसका कोई दोष है।”
हां, रिज़ल्ट तुरंत नहीं मिला था। लेकिन कुछ तो हुआ था। एक सोच बदली थी। किसी के भीतर कुछ हिला था। और शायद... इसी को कहते हैं 'Intangible परिणाम'।
और यह सिर्फ मेरी नहीं... एक गांव के बुज़ुर्ग की भी कहानी है। बनारस के पास एक छोटा सा गांव—जहां एक बाबा रोज़ सुबह मंदिर जाते थे। कोई उनसे पूछता, “क्या मिला?”
बाबा मुस्कुरा कर कहते, “कुछ नहीं, लेकिन मैं जाता रहूंगा। ये मेरे भीतर कुछ बदल देता है।”
अब सोचिए, क्या ऐसे प्रयास व्यर्थ हैं? या फिर... वही गीता कहती है—“स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्” यानी, थोड़ा सा भी जो ‘धर्म’ किया, वह भी बड़ी मुसीबत से रक्षा करता है।
आप सोच रहे होंगे—“लेकिन क्या सबके लिए यही सच है?” हां, सच पूछो तो... हां। लेकिन ये समझना, महसूस करना पड़ता है। जीवन में एक से ज़्यादा बार।
मुझे नहीं पता आप इस वक्त किस मोड़ पर हैं। शायद कोई अधूरी नौकरी छोड़ आए, कोई रिश्ता टूटा हो, या कोई सपना हाथ से निकल गया हो। पर अगर आपने ईमानदारी से वो प्रयास किया था... तो गीता की गारंटी है, “कुछ भी बेकार नहीं गया।”
और अगर अब भी यकीन नहीं हो रहा... तो अगली बार जब कोई आपको कहे, “इतनी मेहनत करके क्या मिला?” तो बस मुस्कुरा देना। और दिल में गुनगुनाना—“नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति...”
क्योंकि कर्म कभी खाली नहीं जाता।
अधूरे पलों की भी होती है कीमत... पर हमें दिखाई नहीं देती
कभी किसी बात को बस छूकर छोड़ दिया है? जैसे एक गाना, जो शुरू तो हुआ लेकिन पूरा सुना नहीं। या कोई चिट्ठी, जो आधे में ही फाड़ दी गई... या वो दोस्ती, जो कहे बिना ही अधूरी रह गई।
हम अक्सर सोचते हैं—“जो पूरा नहीं हुआ, उसका क्या मतलब?” और सच कहूं... मैं भी यही सोचता था।
लेकिन फिर गीता आई। श्लोक 2.40 ने मुझे रोका, मुझे झिंझोड़ा, और पूछा—"क्या अधूरापन बेकार होता है, या तुमने उसकी कीमत समझी ही नहीं?"
एक बार, जयपुर में, मैं एक वृद्धाश्रम की स्टोरी कवर कर रहा था। एक अम्मा मिलीं—80 की उम्र, गठिया से जकड़ी उंगलियाँ, लेकिन हाथ में रोज़ एक किताब। मैंने पूछा, “क्या पढ़ती हैं आप?”
वो मुस्कराईं, बोलीं, “शब्द पूरे नहीं पढ़ पाती, पर हर दिन एक पंक्ति पढ़ती हूँ।” मैं चौंका। वो पंक्ति? “नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति...”
इतना अधूरा सा प्रयास... लेकिन हर दिन। और उन्होंने कहा, “बेटा, इसने मुझे टूटने से बचाया है।”
देखिए, ये वही बात है जिसे हमारे शास्त्र सैकड़ों सालों से कहते आ रहे हैं। हर अधूरी कोशिश में भी एक 'पूर्णता की बीज' छुपी होती है।
अब आप कह सकते हैं, “लेकिन समाज तो सिर्फ नतीजा देखता है!” हां, देखता है। लेकिन जीवन सिर्फ समाज नहीं होता।
एक लेखक की अधूरी कविता... एक चित्रकार की अधूरी रेखा... एक प्रेमी की अधूरी पुकार... क्या इनका कोई मूल्य नहीं होता? या क्या मूल्य सिर्फ उसी चीज़ का है जो दुनिया को दिखे?
मैंने अपने जीवन में कई लेख अधूरे छोड़े हैं। कुछ लाइनें बस नोटबुक में रह गईं। लेकिन जब कभी वही लाइनें लौट कर आती हैं... तो लगता है, “वो अधूरा क्षण भी शायद जरूरी था।”
गीता कहती है—"स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्" यानि थोड़ा सा भी धर्म का कार्य, चाहे अधूरा ही क्यों न हो, वह भी बड़े संकट से रक्षा करता है।
मुझे याद है एक किशोर—रवि। सड़क पर झूठे आरोप में पकड़ा गया। मैंने एक कॉलम लिखा। प्रिंट नहीं हुआ। लेकिन किसी ने ऑनलाइन पढ़ा और केस खोला। आखिर में, रवि रिहा हुआ। अब वो वकील बन रहा है।
सोचिए—अगर वो लेख अधूरा था... तो क्या उसका असर भी अधूरा था?
नहीं। कभी नहीं।
अधूरे प्रयासों की भी अपनी ऊर्जा होती है। वे घिसते हैं, रगड़ खाते हैं, और जब वक़्त आता है... तो किसी अजनबी की ज़िंदगी बदल देते हैं।
तो अगली बार जब आप कोई कोशिश शुरू करें... और बीच में छूट जाए, तो उसे छोड़िए मत। रख लीजिए। कहीं दिल में, कहीं डायरी में। शायद वो एक दिन... किसी की दुनिया बदल दे।
और अगर कोई कहे—“ये क्या अधूरा काम है?” तो जवाब दीजिए—“क्योंकि हर अधूरापन, पूर्णता की राह होती है। गीता यही कहती है।”
जो तुमने नहीं देखा... वह भी घट रहा है
कभी-कभी न, ऐसा होता है कि हम घंटों, हफ्तों या महीनों तक कोई काम करते हैं, पर कोई नतीजा सामने नहीं आता। ना तारीफ, ना सराहना। बस एक चुप्पी... एक थकान... एक सवाल — “क्या ये सब बेकार था?”
सच कहूं तो, एक दौर में मैंने भी अपने आप से यही पूछा था। तब मैं एक छोटे अख़बार में काम करता था। रात भर कॉफी के कप के साथ बैठकर पेज सेट करता — रिपोर्टिंग करता — और फिर भी… सुबह कोई मेरा नाम तक न ले।
फिर एक दिन, गीता का श्लोक पढ़ा — “नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।” और यहीं से सब कुछ... नहीं, सब कुछ तो नहीं — पर कुछ तो बदल गया था।
मैंने समझा — जो तुमने नहीं देखा, वह भी घट रहा है। जैसे धरती के नीचे बीज में हलचल होती है, जैसे रात के अंधेरे में पौधा एक इंच बढ़ता है… जैसे किसी की चुप्पी भी कभी कभी आभार होती है।
एक बार की बात है — एक गांव में मेरी रिपोर्टिंग के बाद बिजली बोर्ड ने ट्रांसफार्मर बदला। लोगों ने मुझे कुछ नहीं कहा। ना फोन आया, ना ईमेल। मैंने मान लिया, किसी ने पढ़ा ही नहीं।
छह महीने बाद, उसी गांव के स्कूल में स्पीच देने बुलाया गया। वहां एक बच्चा आया, बोला — “आपकी रिपोर्ट के बाद हमारे घर में पंखा चलने लगा, अब मम्मी कहती हैं — पढ़ाई ठीक से करना।”
बस, मैं कुछ पल चुप रहा। क्योंकि जो मैं देख नहीं पाया, वही असल में घट रहा था।
गीता यही कहती है — “स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।” यानि धर्म का कोई भी कार्य — चाहे वह कितना भी छोटा या अनदेखा क्यों न हो — उसका असर होता है... देर से, गहराई से, चुपचाप।
इसलिए जब लोग कहते हैं — “यार, ब्लॉग लिखकर क्या मिलेगा?” या “इतना वीडियो बनाकर भी कुछ न हुआ तो?” तो मैं बस मुस्कुरा देता हूं।
मैंने खुद महसूस किया है कि कभी जो फसल तुम बोते हो, वो शायद किसी और के हाथ से कटे। पर इसका मतलब ये नहीं कि बीज बेकार गया।
आप उस ऊर्जा को नहीं देख सकते जो आपके शब्दों से निकली और किसी की आत्मा को छू गई। आप उस वक्त को नहीं गिन सकते जब किसी ने आपकी बातों से टूटते हुए भी खुद को संभाल लिया।
क्या हर प्रभाव तुरंत दिखाई देता है? नहीं। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि वो घट नहीं रहा।
हर भावना, हर लेख, हर छोटी कोशिश — किसी जगह जा रही होती है, किसी जीवन को छू रही होती है। और गीता... वो तो बस यही रिमाइंडर है, कि तुम चलते रहो। देखो या ना देखो — कुछ तो घट रहा है।
डर और प्रयास के बीच जो बात गीता कहती है
कभी अपने आप से ये पूछा है — “क्या होगा अगर मैं फेल हो गया?” अरे नहीं, सिर्फ एग्जाम की बात नहीं कर रहा। मैं बात कर रहा हूं उस डर की जो हर इंसान के सीने में एक छोटा सा ‘अगर’ बनकर धड़कता है — अगर मैं गिर गया… अगर किसी ने हँसी उड़ाई… अगर कोई नहीं समझा…
यही ‘अगर’ ही तो है जो हमें रोक देता है। मैं जानता हूं, क्योंकि मैंने इसे जिया है।
वो साल था 2012। मैंने तय किया कि नौकरी छोड़कर फुलटाइम लिखूंगा। कोई स्थिर कमाई नहीं। लोग कहते थे, “पागल हो गया है क्या? शादी करेगा कैसे?” मां चुप थीं, लेकिन उनकी आंखें बहुत कुछ कह रही थीं… और मैं? मैं रोज़ डरता था — क्या होगा अगर मेरी कोशिश बेकार गई?
इन्हीं दिनों किसी ने गीता की ये पंक्ति सुनाई — “नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।” और यकायक, जैसे कोई भारी बोझ उतर गया।
इसका मतलब? “इस मार्ग में किया गया थोड़ा सा प्रयास भी व्यर्थ नहीं जाता, और इसमें कोई नुक़सान नहीं होता।”
तब समझ में आया — डर का जवाब ‘सफलता’ नहीं है। डर का जवाब है — प्रयास।
हमारी समस्या यह नहीं कि हम हार जाते हैं। असल डर तो यह है कि हम कोशिश भी नहीं करते। और यही चीज़ हमें भीतर से खोखला करती है।
गीता यहां पर बहुत साफ बात करती है। यहां पढ़ें पूरा श्लोक उसमें भगवान कृष्ण कह रहे हैं — “कोशिश करो, क्योंकि यहां कोई घाटा नहीं है। ना धन का, ना सम्मान का, और सबसे ज़रूरी — ना आत्मा का।”
मैंने धीरे-धीरे लिखना शुरू किया। पहले पोस्ट पर सिर्फ 12 व्यूज़ आए। दूसरे पर 8। तीसरे पर शून्य। लेकिन मैंने नहीं रोका। क्यों? क्योंकि मैं गिनती नहीं कर रहा था — मैं यात्रा में था। और हर बार डर आया, मैंने गीता का यही श्लोक दोहराया — “नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति…”
आज जब लोग कहते हैं — “भाई, तू तो बड़ा लेखक बन गया।” तो मुझे वो दिन याद आते हैं जब डर से उंगलियाँ कांप रही थीं, पर लिखना नहीं छोड़ा।
डर… हमेशा रहेगा। लेकिन गीता बताती है — डर से लड़ने का एक ही तरीका है — कर्म।
आप कोशिश की गिनती मत करो। बस याद रखो — हर छोटा प्रयास, चाहे वो कुछ भी न दिखे, आपके भीतर एक बदलाव ला रहा है। एक दिन, वो कोशिश एक ऐसी मंज़िल बन जाती है, जिसे देखकर लोग कहते हैं — “भाग्यशाली है।”
पर असल बात यह है — भाग्य नहीं, प्रयास बदलता है सब कुछ। और गीता? वो उस यात्रा में, हर मोड़ पर आपकी हथेली थामे चलती है।
जो थोड़ा किया, उसका भी मूल्य है
आप कभी रुके हैं उस मोड़ पर जहाँ कुछ करना तो है… पर मन कहता है — "क्या फ़ायदा?" मैं खुद ऐसे मोड़ों से गुज़रा हूँ — जब लगता था, ये जो छोटा सा कदम है, इसका क्या असर होगा?
एक शाम याद है मुझे… सर्दी की धूप में छत पर बैठा था, और सामने चाय की भाप उठ रही थी। कंप्यूटर बंद… दिमाग खाली। मन में एक वाक्य घूमता रहा — "बस आज मत लिखो, कोई नहीं पढ़ेगा।"
वो दिन था जब मैंने एक लाइन ही लिखी — सिर्फ एक लाइन। लेकिन, क्या आप मानेंगे? वहीं लाइन बाद में मेरी सबसे ज़्यादा पढ़ी जाने वाली पोस्ट की शुरुआत बनी।
गीता कहती है — “नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति...” मतलब, अगर तुमने कुछ थोड़ा भी किया, तो वह व्यर्थ नहीं जाता। कोई नुक़सान नहीं, कोई पछतावा नहीं।
ये विचार अध्याय 2, श्लोक 40 का मूल है। शब्द छोटे हैं, अर्थ बहुत बड़ा।
मुझे एक बार एक बुज़ुर्ग फेरीवाले मिले थे, जो हर दिन सिर्फ 8 केले बेचते थे। मैंने पूछा — “चाचा, सिर्फ 8 ही क्यों?” वो मुस्कराए… बोले — “बेटा, ज्यादा उठाया तो नहीं बिकेगा। लेकिन ये जो मैं रोज़ बेचता हूं, वो मेरी आत्मा को संतोष देता है।”
“थोड़ा भी किया, पर किया सच के साथ।” यही तो गीता सिखाती है। हमारे समाज में अक्सर सफलता को गिना जाता है… पर प्रयास को नहीं।
पर गीता की नज़र उलटी है। वो कहती है — कर्म का मूल्य उसके आकार में नहीं, उसकी नीयत और निष्ठा में है।
कई बार हम कहते हैं — “बस एक दिन की छुट्टी और ले लूं,” “एक दिन का व्रत क्या बदल देगा?” “किसी एक गरीब को खिलाने से क्या फर्क पड़ेगा?”
पर फिर सोचिए… अगर हर इंसान एक बार किसी भूखे को खाना दे दे… हर बच्चा एक दिन बूढ़े मां-बाप के साथ टीवी बंद करके बातें कर ले… अगर हर ब्लॉगर एक ऐसा लेख लिख दे जिससे किसी का दिल संभल जाए…
तो थोड़ा ही काफी हो जाएगा।
जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी ये नहीं कि लोग गिर जाते हैं। त्रासदी ये है कि वे शुरुआत ही नहीं करते — इस डर से कि "थोड़ा क्या करेगा?"
पर आप जान लीजिए — ‘थोड़ा’ ही सबसे गहरा होता है। एक बीज… एक शब्द… एक मुस्कान… इन्हीं से पूरा जंगल, कविता, और रिश्ता बनता है।
तो अगली बार जब आप सोचें — “बस इतना ही?” तब खुद से कहिए — “हां, यही काफी है।”
क्योंकि गीता कहती है — “नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति...” जो थोड़ा किया, उसका भी मूल्य है।
प्रयास करने वाले कभी हारते नहीं
सच बताऊँ तो… एक वक़्त ऐसा भी था जब मैं हार मान चुका था। मन में सवाल था — “क्या वाकई मेरे छोटे-छोटे प्रयास कुछ बदल सकते हैं?”
हर तरफ़ असफलताएँ थीं। जैसे कोई मेरी कोशिशों को नोटिस ही नहीं कर रहा। ब्लॉग पर पाठक कम हो रहे थे, जीवन में भी वही दोहराव… वही अकेलापन… वही थकान।
एक दिन, यूँ ही एक श्लोक आँखों के सामने आ गया — “नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति, प्रत्यवायो न विद्यते…”
शब्द तो पुराने थे, पर असर… नया था। गीता कहती है — कोई भी प्रयास, कोई भी कर्म, चाहे अधूरा ही क्यों न रह जाए, व्यर्थ नहीं जाता।
वहीं से शुरू हुआ बदलाव। मैंने दोबारा लिखना शुरू किया। रोज़ नहीं… बस जब मन कहे। छोटे लेख, छोटी कविताएँ, कभी-कभी सिर्फ़ एक उद्धरण ही पोस्ट करता था।
और फिर — धीरे-धीरे, कुछ पाठक लौटने लगे। कमेंट्स आने लगे। लोग कहने लगे — “आपका लिखा पढ़ कर हिम्मत मिलती है।”
तब समझ में आया — प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जाते।
आपने कभी देखा है बर्फ़ गिरते हुए? पहली बूँद ज़मीन पर गुम हो जाती है। दूसरी भी। तीसरी… फिर भी कोई असर नहीं। पर जैसे-जैसे बर्फ़ गिरती जाती है, धीरे-धीरे पूरी ज़मीन ढक जाती है — श्वेत, शांत, और प्रभावशाली।
उसी तरह… हमारे प्रयास भी पहले गुम हो जाते हैं। पर फिर धीरे-धीरे असर छोड़ते हैं।
मेरे एक मित्र ने एक NGO शुरू की थी। पहले महीने सिर्फ़ 3 बच्चे आए पढ़ने। दूसरे महीने 5। आज वहाँ 120 बच्चे पढ़ते हैं, और कुछ सरकारी स्कूलों से बेहतर रिज़ल्ट देते हैं।
तो क्या वो पहले महीने की मेहनत बेकार गई? नहीं। गीता यही कहती है — “प्रयत्न करने वाले कभी हारते नहीं।”
ज़िंदगी भी तो ऐसी ही होती है ना? कभी-कभी हम सोचते हैं — “इतना सब किया, फिर भी क्या मिला?” पर जो मिला, वो शायद हमें आज नहीं दिख रहा।
पर कभी-कभी… रात के सबसे काले हिस्से के बाद ही सूरज निकलता है। आध्यात्मिक यात्रा भी ऐसी ही होती है — धीरे, धैर्य से, एक कदम हर दिन।
गीता के इस श्लोक ने मुझे सिर्फ़ लिखना नहीं सिखाया — इसने मुझे जिंदा रखा। मुझे खुद पर भरोसा करना सिखाया। और यही मैंने आज यहां बाँटा।
शायद आप भी कहीं ऐसे ही दोराहे पर हों। शायद आप भी सोच रहे हों — “क्या ये सब करने का कोई मतलब है?”
तो बस इतना याद रखिए… हर प्रयास गिना जाता है। हर कर्म की गूंज होती है।
और हाँ — प्रयास करने वाला कभी हारता नहीं। कभी नहीं।
भाग्य से ज़्यादा, प्रयास ज़रूरी है
“तू बहुत भाग्यशाली है…” ये शब्द मैं हर बार सुनता था जब कोई छोटी सी सफलता मिलती। और हर बार मन में एक हल्का-सा विरोध उपजता — क्या सब कुछ सच में भाग्य से ही होता है?
याद है एक दफा, मेरे पापा ने कहा — “भाग्य बस एक बहाना है, बेटा। जो मेहनत करता है, वही जीतता है।” तब मैं बहुत छोटा था, शायद 11वीं क्लास में। तब तक जीवन बस एक स्कोरकार्ड था — मार्क्स और मेरिट।
पर असल जिंदगी… वो स्कोरकार्ड नहीं होती। यहाँ मेहनत दिखती नहीं, पर असर छोड़ती है। जैसे बारिश की पहली बूँदें — मिट्टी में गुम, लेकिन सौंधी महक के साथ।
भाग्य की कहानी हर गली में घूमती है। कभी किसी lottery winner की, कभी किसी बिना पढ़े IAS बन गए चमत्कार की। लेकिन ज़रा पूछिए उनसे जिन्होंने दिन-रात एक किया हो। जिनके पास ना सही वक्त था, ना किताबें, ना ट्यूशन… फिर भी हर सुबह उठकर जूझे।
क्या वो कम भाग्यशाली थे? या उनका कर्म ही उनका भाग्य बना?
मेरे एक जानने वाले रिक्शा चालक का बेटा था — विक्रम। स्लेट तक खरीदने को पैसे नहीं थे। पर पढ़ने का ज़ुनून ऐसा कि सरकारी स्कूल की लाइब्रेरी में झाड़ू लगाने के बहाने किताबें पढ़ता था।
आज वो एक IAS अफ़सर है। कभी वो खुद अपनी किस्मत को कोसता था, पर अब वो कहता है — “किस्मत तो बहाना थी, असली साथी तो मेरी मेहनत थी।”
गीता में भी तो यही कहा गया है न? “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” कर्म कर, फल की चिंता मत कर।
पर हम उल्टा करते हैं। भाग्य का राग गाते हैं, प्रयासों से कतराते हैं। और जब कुछ नहीं होता, तो कहते हैं — “यही लिखा था।”
बिल्कुल वैसा ही मेरे साथ हुआ था जब मैं पहली बार अपने ब्लॉग Observation Mantra Hindi पर लिखने बैठा। शुरुआत में कोई पढ़ता नहीं था। कमेंट्स? ज़ीरो। शेयर? शायद 2-3 दोस्तों ने courtesy में।
उस वक़्त लगा, शायद मैं destined नहीं हूँ। शायद ये सब मेरे बस की बात नहीं।
पर एक दिन… एक अजनबी का मेल आया — “आपके लेख ने मुझे आत्महत्या से बचाया।” बस वही दिन था, जब मैंने सोचा — ये भाग्य नहीं, मेरी मेहनत बोल रही है।
भाग्य आपको शुरूआत दे सकता है। पर रास्ता? वो आप ही बनाते हैं। खुद की छाल छीलकर, आँखों में नींद चुभती रहे फिर भी — कल फिर कोशिश करने का जज़्बा बनाए रखना, वो प्रयास होता है।
और प्रयास… कभी झूठ नहीं बोलते।
इसलिए अगर आप सोच रहे हैं — “मेरे साथ सब बुरा क्यों हो रहा है?” तो एक बार ठहरिए। अपने प्रयासों को देखिए।
कर्म की दुनिया में भाग्य सिर्फ़ एक किरदार है। नायक तो आप हैं।
जो आधा छोड़ते हैं, वो क्या खोते हैं?
कभी ऐसा हुआ है आपके साथ? बस थोड़ी दूर और जाना था… लेकिन हमने कह दिया — “अब नहीं हो पाएगा।”
एक बार मेरी दादी ने कहा था, “बेटा, अधूरी इमली ज़्यादा खट्टी लगती है।” तब समझ नहीं आया था। पर ज़िंदगी ने सिखा दिया — अधूरे फैसले, अधूरी कोशिशें और अधूरे सपने सबसे ज़्यादा कसक देते हैं।
मैं जब पहली बार Observation Mantra Hindi पर लिखने लगा, तो हर दिन उम्मीद करता कि कुछ चमत्कार हो। हज़ारों लोग पढ़ें। शेयर करें। कमेंट्स आएँ। लेकिन हुआ क्या? पहले 3 महीनों में कुल 212 विज़िटर्स।
मन किया — “अब छोड़ दें क्या?” पर फिर याद आया — भगवद गीता में अर्जुन ने भी तो कहा था — “मैं नहीं लड़ूँगा।” क्यों? क्योंकि उसे लगा शायद अब कोई फायदा नहीं। पर श्रीकृष्ण ने तब कहा — “न हि कल्याणकृत् कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति।” (जो अच्छा कर्म करता है, वह कभी विनाश को प्राप्त नहीं होता।)
बस वही एक बात... एक बूँद उम्मीद बनकर मेरे भीतर टपकी। और मैं लिखता रहा।
आध्यात्मिक लेख लिखना आसान नहीं होता। कोई trending topic नहीं, कोई celebrity reference नहीं। बस आत्मा की आवाज़ और वो भी इस शोरगुल में कौन सुने?
पर कुछ भी अधूरा छोड़ देना — वो बस एक पल की राहत देता है, ज़िंदगीभर की खलिश नहीं मिटती।
जैसे मेरा एक दोस्त था — आशुतोष। CA की तैयारी कर रहा था। 3 बार फेल हुआ। चौथी बार तैयारी छोड़ दी। आज हर बार जब किसी को CA बनते देखता है… तो सिर्फ एक बात कहता है — “काश, एक बार और कोशिश करता।”
छोड़ देने की सबसे बड़ी मुश्किल ये नहीं कि आप हार गए। मुश्किल ये है कि आप कभी जान ही नहीं पाते कि क्या होता अगर आप डटे रहते?
ये जो आधा छोड़ने की आदत है न, ये धीरे-धीरे आत्मा को खोखला कर देती है। आप फिर किसी काम में मन नहीं लगा पाते। क्योंकि भीतर कहीं कोई चुप्पी कहती रहती है — “तू कभी पूरा नहीं करता।”
इसलिए आज अगर आप कुछ छोड़ने की सोच रहे हैं — तो बस एक काम करिए… कल तक और रुकिए। और फिर कल एक दिन और।
क्योंकि शायद… शायद आप जीत से एक कदम दूर हैं।
परिणाम देखने के लिए आपको आख़िरी तक जाना होगा। चाहे वह ब्लॉग हो, नौकरी हो, रिश्ता हो या आत्म-अनुशासन।
जो आधा छोड़ते हैं, वे सिर्फ़ काम नहीं छोड़ते… वे खुद पर से भरोसा छोड़ते हैं।
परिणाम की चिंता क्यों करते हैं?
सच कहूँ तो... यह सबसे कठिन श्लोक है मेरे लिए। “कर्म करो, फल की चिंता मत करो।” कितनी बार सुना है, कितनी बार दोहराया है... पर क्या कभी आत्मा से माना है इसे?
मैं याद करता हूँ कॉलेज के वो दिन, जब मैंने अपनी पूरी रातें जाग-जाग कर एक प्रोजेक्ट पर लगा दी थीं। हर बार सोचा, शायद इसी से selection होगा। पर क्या हुआ? न रिज़ल्ट आया, न इंटरव्यू कॉल।
और फिर वही सवाल — “इतनी मेहनत का क्या फायदा?”
श्रीमद्भगवद्गीता के इस श्लोक पर लौटता हूँ — “तेरा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में नहीं।” पर आप सोचिए — जब हम कुछ करते हैं, तो क्या सिर्फ करने भर से तसल्ली मिल जाती है?
मेरे पिताजी किसान हैं। हर साल फसल बोते हैं… कभी बारिश होती है, कभी नहीं। कभी मंडी का दाम गिर जाता है। तो क्या वो खेत बोना छोड़ देते हैं? नहीं। वो फिर भी कर्म करते हैं — क्योंकि उम्मीद छोड़ना किसान को शोभा नहीं देता।
शायद यही बात हम भूल जाते हैं — कर्म का मतलब mechanical काम नहीं होता। कर्म आत्मा से जुड़ा होता है।
परिणाम जब हाथ से फिसलता है न… तो लगता है कि पूरी मेहनत बेकार हो गई। लेकिन वहीं से तो असली यात्रा शुरू होती है।
मैंने ब्लॉगिंग शुरू की थी, आप जैसा कोई और नहीं था जो मुझे SEO सिखाए। ना backlinks का कोई अनुभव… बस एक लगन, एक रगड़ती हुई बेचैनी — कि ये जो भीतर कहानियाँ कुलबुला रही हैं, उन्हें दुनिया तक पहुँचाना है।
और आज जब कोई एक पाठक भी कमेंट करता है — “सर, ये लेख दिल छू गया,” तो लगता है शायद… परिणाम की चिंता छोड़कर ही सही दिशा में चल रहा हूँ।
देखिए… चिंता का यह जाल बहुत महीन होता है। पता भी नहीं चलता और हम उसमें उलझ जाते हैं। चिंता कि लोग क्या कहेंगे, चिंता कि व्यूज क्यों नहीं आ रहे, चिंता कि ये पोस्ट Google में रैंक करेगा या नहीं।
लेकिन क्या कभी आपने सोचा — अगर हम परिणाम की चिंता किए बिना कुछ करें तो कैसा लगेगा? बस कर गुजरें… दिल से, नीयत से…
मैं नहीं कहता कि फल की चाह छोड़ दें। वो तो स्वाभाविक है। पर उस चाह को दिशा देने के लिए कर्म में आनंद ढूँढ़ना सीखिए।
मेरी माँ कहती हैं — “खाना पकाते समय अगर चिंता करोगे कि सबको पसंद आएगा या नहीं, तो स्वाद बिगड़ जाएगा।” बस वही बात ज़िंदगी पर भी लागू होती है।
तो अगली बार जब कुछ लिखें, कुछ बनाएँ, कुछ बोएँ… तो खुद से एक सवाल पूछिए — “क्या मैं इस काम को प्रेम से कर रहा हूँ?” अगर हाँ — तो फिर फल की चिंता क्यों करनी?
भावनात्मक लेखों की ताकत यही होती है, वो आपको अपने भीतर झाँकने को मजबूर कर देते हैं। तो आप बताइए — क्या आप परिणाम की चिंता किए बिना चल सकते हैं?
क्योंकि अंत में… यही सच्चा योग है — कर्मयोग।
एक भी प्रयास व्यर्थ नहीं जाता
कभी सोचा है, जब आप किसी को हल्की-सी मुस्कान देते हैं, तो क्या फर्क पड़ता है उनके दिन पर? या जब आप चुपचाप किसी की मदद करते हैं — बिना वाहवाही के… क्या वो कहीं गिनती में आता है?
श्रीमद्भगवद्गीता का यह वचन — “न हि कल्याणकृत् कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति।” मतलब — जो शुभ कर्म करता है, वो कभी नाश को प्राप्त नहीं होता।
मैंने जब पहली बार यह पढ़ा था, तो इसे एक "आश्वासन" समझा। जैसे माँ कहती है — "तू कर बेटा, सब ठीक होगा।"
पर समय के साथ जब जीवन ने चक्कर लगवाए… कभी ब्लॉग पर 1 भी व्यू नहीं आया, कभी रात भर मेहनत की पोस्ट गूगल में तक नहीं दिखी, तब समझ आया — यह श्लोक कोई भावनात्मक दिलासा नहीं है… यह एक गारंटी है।
एक बार की बात है — मैंने एक पोस्ट लिखी थी: “2025 में AI से नौकरियाँ कैसे बचाएं” सोचा था लोग पढ़ेंगे, शेयर करेंगे… पर उस दिन... केवल दो व्यू आए। एक मैं, एक शायद मेरी माँ।
उस दिन दिल बैठ गया था। लेकिन अगले हफ्ते, एक मेल आया — “सर, आपकी पोस्ट पढ़कर मैंने अपनी दुकान को डिजिटल करना शुरू किया। AI नहीं हटा, पर डर कम हो गया।”
बस… वहीं से मेरी आत्मा कांप उठी। एक भी प्रयास व्यर्थ नहीं गया था।
हमें लगता है, जो बड़ा है — वही महत्वपूर्ण है। लाखों views, हजारों subscribers… पर क्या हम यह भूल नहीं जाते कि हर महान चीज़ की शुरुआत छोटे प्रयास से होती है?
मेरी दादी जब मंदिर जाती थीं, हर बार तुलसी के सामने एक बूंद पानी चढ़ाती थीं। एक दिन मैंने पूछ लिया — “दादी, एक बूंद से क्या होगा?” वो हँस पड़ीं — “बूंद-बूंद से ही तो घाट भरता है, बेटा।”
शायद हम भूल जाते हैं कि हर पॉजिटिव कमेंट, हर genuine backlink, हर सोच-समझकर लिखी लाइन — एक इंट है, उस पुल की, जो पाठक और लेखक के बीच बनता है।
इसलिए जब आप आध्यात्मिक विषयों पर लिखते हैं, या कोई यथार्थ अनुभव साझा करते हैं, तो वो सिर्फ कंटेंट नहीं होता… वो एक प्रयास होता है — किसी की सोच बदलने का।
और यह गारंटी है — वो प्रयास व्यर्थ नहीं जाता।
इसलिए अगली बार जब आप कुछ लिखें, कुछ बोलें, या किसी के लिए कुछ करें… तो उस पर भरोसा करें। हो सकता है वो अभी रंग न लाए, पर एक बीज तो ज़रूर बो दिया आपने।
क्योंकि सच यह है — भलाई कभी खाली नहीं लौटती।
क्या आपने कभी ऐसा कोई प्रयास किया है जो तुरंत सफल न हुआ हो लेकिन बाद में उसका गहरा असर दिखा हो? तो ज़रूर साझा करें मेरे साथ — क्योंकि आपकी कहानी भी किसी के लिए अगला कदम बन सकती है।
मंज़िल दिखे या न दिखे, चलना ज़रूरी है
एक रात… बहुत ही शांत रात थी वो। घर की छत पर बैठा मैं, सोच रहा था — क्या मैं सही रास्ते पर हूँ?
कुछ पोस्ट्स बिना पढ़े रह जाती हैं, कुछ सपने जवाब नहीं देते… और कुछ सवाल — बस सवाल रह जाते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक 2.40 में जो बात कही गई है — “स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।” यानी, इस योग में थोड़ा भी अभ्यास — महान भय से रक्षा करता है।
अब आप कहेंगे — "क्या इस बात से EMI भर जाएगी?" नहीं, शायद नहीं। लेकिन जब जीवन की EMI — मतलब उम्मीद, मनोबल, और विश्वास — घटने लगता है… तो यही श्लोक उसकी भरपाई करता है।
मैं आपको एक छोटी-सी कहानी सुनाता हूँ। साल 2020 — लॉकडाउन का दौर था। मैंने पहली बार एक ब्लॉग लिखा, अपने डर, अपने अकेलेपन, और उस खामोशी पर… जिसमें पूरा देश डूबा था।
कोई गूगल पर खोज भी नहीं रहा था उस वक़्त "ब्लॉग्स ऑन सोल सर्चिंग" — पर मैंने लिखा। क्यों? क्योंकि मुझे चलता रहना था।
कोई मंज़िल नहीं दिख रही थी। Views? Zero. Comments? नदारद। पर दिल... दिल कहता था — "चल, लिख।"
आज जब उस पोस्ट पर 5,000 से ज्यादा रीड्स हैं — तो समझ आता है, चलना क्यों ज़रूरी था।
हम अक्सर यह सोचकर ठहर जाते हैं कि रिज़ल्ट नहीं दिख रहा… तो प्रयास भी क्यों करें? लेकिन गीता हमें यही सिखाती है — मंज़िल से ज़्यादा महत्त्व उस 'यात्रा' का है, जो भीतर हमें बदलती है।
बचपन में एक दोस्त था — गणेश। हम दोनों बॉल से क्रिकेट खेलते थे, और वो हर बार हारता था। मैं हँसता, वो चुप रहता। पर एक दिन उसने कहा — "मैं हर रोज़ हारकर भी खेलता हूँ… क्योंकि शायद जीत कभी अचानक आ जाए।"
बस, यही है… चलते रहने की बात। कभी कोई नहीं देखता कि आप चल रहे हैं। लेकिन ऊपर कोई गिन रहा है।
जो भावनाएँ हम बाँटते हैं, जो शब्द हम लिखते हैं, वो कभी खोते नहीं… वो कहीं दर्ज हो जाते हैं।
तो अगली बार जब आप कहें — "अब थक गया हूँ", तो बस एक बात याद रखिए — मंज़िल दिखे या न दिखे, चलते रहना ही सबसे बड़ी तपस्या है।
क्या आपने भी कभी ऐसा कोई काम शुरू किया था जिसका परिणाम देर से मिला? शायद आज भी नहीं मिला? तो मैं जानना चाहूँगा — आपकी यात्रा… क्योंकि शायद उसमें मेरे जैसे किसी राही को दिशा मिल जाए।
तो फिर... रुक क्यों जाएँ?
कभी-कभी लगता है ना — सब बेकार जा रहा है। जैसे... हम जो कर रहे हैं, उसका कोई मतलब ही नहीं। ना कोई देख रहा है, ना कोई सराह रहा है। बस एक अजीब-सी चुप्पी है, जो हर ओर पसरी है।
मुझे याद है — कॉलेज के दिनों में मैंने पहला लेख एक दीवार पर हाथ से लिखकर चिपकाया था। हाँ, ब्लॉग नहीं... दीवार पर। क्योंकि तब इंटरनेट इतना पास नहीं था, और ना ही आत्मविश्वास।
मेरे प्रोफेसर बोले थे, “यह सब लिखकर क्या होगा?” और मेरा दिल... दिल तो सच में टूट गया था उस दिन।
पर उसी रात, हॉस्टल के एक दोस्त ने कहा — "तेरे शब्दों में कुछ है। अभी नहीं समझ आया, पर एक दिन ज़रूर आएगा।"
आज उस बात को 15 साल हो चुके हैं। और मैं अब भी लिख रहा हूँ — क्योंकि मैंने जाना कि सार्थकता किसी ‘तालियों’ की मोहताज नहीं होती। वो भीतर से आती है। बिलकुल वैसे ही जैसे गीता का यह श्लोक — जिसे पहली बार समझा, तो जैसे मेरी ज़िंदगी का मर्म बदल गया।
“स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।” मतलब? थोड़ा-सा भी अगर सही राह पर चलो — तो जीवन की सबसे बड़ी घबराहट भी हार मान लेती है।
अब सोचिए... अगर आप हर दिन थोड़ा-सा भी बेहतर काम करें, बिना डर, बिना फल की चिंता के — तो क्या ही हो?
कोई इंस्टाग्राम पर रील बना रहा है, कोई ट्विटर पर विरोध जता रहा है, पर आप... अगर अपने जीवन की कहानी सच्चाई से कहें — तो वो सबसे ऊँची गूंज होती है।
यही वजह है कि यह ब्लॉग बना — Observation Mantra, एक आवाज़ — जो न शोर मचाती है, न दिखावा करती है... बस चुपचाप कहती है, "तुम चलो, रास्ता खुद बनता जाएगा।"
आपके मन में डर है? तो बताइए। मुझे भी डर लगता है। चलो, साथ मिलकर उस डर से बात करते हैं — यहाँ।
आप भी कुछ लिखते हैं? तो हमें टैग कीजिए, Facebook या X (Twitter) पर। क्योंकि आपकी कहानी — किसी और के अंधेरे में एक रोशनी हो सकती है।
तो अब क्या करें? कुछ नहीं। बस... अगला कदम उठाइए। और अगर पैर काँपे भी — तो भी मत रुकिए।
क्योंकि गीता यही कहती है — "चलते रहो।" बस इतना ही काफ़ी है।
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