श्लोक 38: एक पंक्ति जो मन के तूफानों को साधे
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥
गीता का ये श्लोक पहली बार पढ़ा था, तो लगा — "ओह, ये तो बस एक मोटिवेशनल लाइन है।" लेकिन जब मैंने इसे महसूस किया… अपने एक हार के पल में… तब ये सिर्फ श्लोक नहीं रहा। ये मेरा आईना बन गया।
कृष्ण कहते हैं — सुख और दुख, लाभ और हानि, जीत और हार — इन सब में समभाव रखो। और फिर युद्ध करो। यह ‘युद्ध’ सिर्फ कुरुक्षेत्र का नहीं है। यह वो युद्ध है जो हम रोज़ अपने भीतर लड़ते हैं।
कभी रिश्तों में, कभी नौकरी में, कभी सपनों और जिम्मेदारियों की टकराहट में। जब कोई व्हाट्सएप पर 'ब्लॉक' कर देता है और आप समझ ही नहीं पाते क्यों। जब एक मेल में लिखा आता है — "Thank you for your time." और दिल टूट जाता है।
क्या उस समय भी हम 'सम' रह सकते हैं? आसान नहीं है… पर यही तो चुनौती है।
मैंने ये श्लोक उस रात बार-बार पढ़ा जब मेरी सबसे करीबी दोस्त ने मुझसे बात बंद कर दी थी — बिना कोई वजह बताए। दिल टूटा था, मानो कोई बहुत अपना छीन लिया गया हो। लेकिन फिर ये शब्द कानों में गूंजे — “सुखदुःखे समे कृत्वा…”
मानो कृष्ण खुद कह रहे हों — "कभी कोई पास आता है, कभी दूर चला जाता है। लेकिन तू खड़ा रह — अपने कर्तव्य पर, अपने आत्मबल पर।"
मेरे जीवन में ये श्लोक एक एंकर बन गया। जब मां की तबीयत अचानक बिगड़ी और मैं अस्पताल के गेट के बाहर अकेला बैठा था। जब नौकरी छूटी और EMI बाकी थी। जब दोस्तों ने पीठ दिखाई, और जिनके लिए दिल से लिखा, उन्होंने जवाब तक नहीं दिया।
हर बार इस श्लोक ने मुझे खड़ा किया। यही वजह है कि अब भी जब कोई पूछता है — "तू इतना शांत कैसे रह लेता है?" — मैं मुस्कुराकर कहता हूँ, "कृष्ण सिखा गए हैं।"
इस श्लोक में एक और गहराई है — “नैवं पापमवाप्स्यसि।” यानी अगर तू समत्व से युद्ध करेगा, तो तुझ पर कोई पाप नहीं लगेगा। आज के संदर्भ में इसका मतलब? जब आप सच्चे मन से काम करते हैं, बिना फल की चिंता किए, तो कोई अपराध बोध नहीं रह जाता।
इस श्लोक का आशय सिर्फ धर्मयुद्ध से नहीं है। यह हमारे हर दिन के संघर्षों से है — मानसिक थकान, रिश्तों की उलझनें, करियर की अनिश्चितता।
अगर आप ध्यान से देखें, तो जीवन खुद एक युद्ध है — और हम सब अपने-अपने अर्जुन हैं। और वो 'कृष्ण' — कभी किसी किताब में, कभी किसी वाक्य में, कभी किसी अनजान सलाह में… बस कान खोलने की देर है।
अब जब भी कोई मुझे रिजेक्ट करता है, ब्लॉक करता है, या पीछे हट जाता है — मैं कहता हूँ: "ठीक है, ये भी बीत जाएगा। लेकिन मैं अपनी लड़ाई जारी रखूंगा।"
अगली कड़ी में जानिए — समत्व क्या होता है? और हम क्यों उससे डरते हैं, क्यों भागते हैं उस स्थिरता से जो भीतर की शक्ति को खोलती है।
समत्व क्या होता है? और हम क्यों उससे भागते हैं?
सच कहूँ, “समत्व” शब्द पहले-पहल थोड़ा भारी-सा लगा था। संस्कृत से आता है, पुरानी किताबों से निकलता है, और सुनते ही लगता है जैसे कोई ऋषि मुनि बैठकर बोल रहे हों… लेकिन असल में समत्व उतना ही ज़मीन से जुड़ा है जितना दादी की वो सलाह — “खुशी में ज़्यादा उछल मत, और दुख में ज़्यादा मत टूट।”
तो समत्व है क्या? सरल भाषा में कहें तो — मन का संतुलन। एक ऐसा भाव जहां आप हर परिस्थिति को स्वीकार करते हैं, लेकिन उससे चिपकते नहीं। जैसे आईसक्रीम खाना अच्छा लगता है, लेकिन अगर वो गिर जाए तो दिन नहीं बिगड़ना चाहिए।
गीता का समत्व बनाम हमारी Insta-hyper life: आज के ज़माने में, जहाँ इंस्टाग्राम की हर स्टोरी एक इमोशनल बम बन चुकी है — breakup? पोस्ट करो। sadness? aesthetic quote। खुशी? filter लगाओ।
हम एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं जहाँ हर भावना का over-identification हो रहा है। ज़रा सोचिए — कोई आपको ‘seen’ करके reply नहीं करता, और आप सोचने लगते हैं कि “मैं ही शायद अच्छा नहीं हूँ।” यहीं से शुरू होता है असमत्व का खेल।
जब भावनाएं हमें define करने लगती हैं — तब हम असंतुलन में जीने लगते हैं।
गीता कहती है — भावनाएं बुरी नहीं हैं। लेकिन जब हम उनके गुलाम हो जाते हैं, तब मुश्किल होती है।
समत्व का मतलब भावनाओं को नकारना नहीं है। बल्कि उन्हें समझना है, जीना है… लेकिन उनकी गिरफ्त से बाहर रहना भी सीखना है।
माँ की एक बात आज भी ज़ेहन में गूंजती है: “बेटा, दुख रुकता नहीं… हम रुक जाते हैं।”
ये लाइन मैंने तब सुनी थी जब पिताजी का ट्रांसफर एक ऐसे शहर में हुआ जहां हमें सब कुछ छोड़कर जाना पड़ा — दोस्तों, स्कूल, मोहल्ला, सब कुछ। मैं पूरी रात रोता रहा था। सुबह माँ ने मेरे बाल सँवारते हुए बस इतना कहा — “बेटा, दुख रुकता नहीं… हम रुक जाते हैं।”
उस वक़्त नहीं समझा, लेकिन आज समझ में आता है — गीता का समत्व मेरी माँ की गोद से ही शुरू हुआ था।
जब आप समत्व की प्रैक्टिस करते हैं, तो कुछ चीज़ें बदल जाती हैं:
- आपका reaction time घटता है — छोटी बातों पर गुस्सा नहीं आता।
- आप comparison की बीमारी से धीरे-धीरे बाहर आते हैं।
- आप चीज़ों को जैसे हैं वैसे देखना शुरू करते हैं — बिना overthinking के।
मैंने ये सीखा एक meditation retreat में, जहाँ हर दिन का एक मंत्र होता था — “Observe. Don’t absorb.”
समत्व भी यही सिखाता है — देखो, महसूस करो, लेकिन अपने मन को उस भावना का कैदी मत बनाओ।
लेकिन क्या ये इतना आसान है? नहीं। नहीं बिल्कुल नहीं। पर क्या ये असंभव है? बिल्कुल भी नहीं।
हर बार जब आप सोचते हैं — “अब बर्दाश्त नहीं होता…” — बस उस पल गीता की ये पंक्ति याद करें:
“सुखदुःखे समे कृत्वा...” — जो आएगा, वो जाएगा। लेकिन तुम्हारा संतुलन ही तुम्हारी शक्ति है।
अगले भाग में — जानिए कैसे इस समत्व को आप अपने रोजमर्रा के जीवन में उतार सकते हैं — ऑफिस, घर, रिश्तों और खुद से रिश्ते में।
Real-Life Stories: समत्व को जीते हुए लोग
सच कहूं, जब हम गीता की बात करते हैं, तो लगता है कि ये ग्रंथ सिर्फ किसी पहाड़ी गुफा में ध्यान लगाने वालों के लिए है। लेकिन नहीं… समत्व उन लोगों के जीवन में ज़्यादा दिखता है, जो रोज़ की ज़िंदगी में लड़ते हैं, हँसते हैं, टूटते हैं — लेकिन फिर भी मुस्कुराते हैं।
एक ऑटो-ड्राइवर की शांति
दिल्ली की एक दोपहर, ऑफिस से घर लौटते हुए, मैं एक ऑटो में बैठा था। ट्रैफिक का बुरा हाल था। सामने BMW थी, बगल में बस, और पीछे से हॉर्न की बारिश। मैंने देखा कि ड्राइवर के माथे पर पसीना था — लेकिन चेहरा शांत।
पीछे से कोई चिल्ला रहा था — "भैया जल्दी चलाओ!" फिर भी उस ड्राइवर ने मुस्कुरा कर कहा — "भाईसाहब, सड़क मेरी नहीं है, टाइम भगवान का है। आप नाराज़ मत होइए।"
उसने मुझसे कहा, "साहब, गुस्सा सबको आता है। लेकिन मैं हर दिन यही सोचता हूँ — ‘सुखदुःखे समे कृत्वा...’ जो मिला, उसका शुक्रिया, जो नहीं मिला, उसकी चिंता नहीं।"
उसकी वो बात सुनकर लगा — समत्व किसी मठ की संपत्ति नहीं है, बल्कि ऑटो की पिछली सीट पर बैठा होता है… हर दिन।
मेरी छोटी बहन और उसका ब्रेकअप
मेरी बहन कॉलेज में थी जब उसका पहला प्यार टूटा। रोती रही दो दिन। फिर चुप। फिर उसने अपनी डायरी में लिखा — "लिखते हुए भी रो रही हूँ… लेकिन कृष्ण की वो लाइन याद आ रही है — 'सुख-दुख समान समझो'। शायद यही टेस्ट है।"
मेरे लिए ये एक wake-up call था। हम सब अपने रिश्तों में, खासकर जब वो खत्म होते हैं, एकदम असंतुलित हो जाते हैं। लेकिन मैंने उसे देखा, धीरे-धीरे फिर से मुस्कुराना सीखा, बिना किसी bitterness के।
और एक दिन उसने मुझसे कहा — "भैया, पता है? गीता सच में काम आती है।" तब लगा — शायद गीता का असली पाठशाला कॉलेज नहीं, ज़िंदगी है।
2020 का लॉकडाउन और पापा का शांत चेहरा
2020… वो साल जिसने हमें बिखेर दिया। हम सब घर पर थे, माँ को खांसी थी, राशन खत्म होने की कगार पर था, पैसे बैंक में अटके थे… और मैं डरा हुआ था।
पर मेरे पापा? वो हर सुबह उठते, तुलसी को जल देते और मुस्कुराकर कहते — "बेटा, रोटी भी मिलेगी… और सुकून भी। चिंता नहीं करो।"
मैं झल्ला जाता — “पापा आप इतने शांत कैसे रह सकते हैं?”
उन्होंने कहा — “समत्व सीख लिया बेटा। तू भी धीरे-धीरे सीख जाएगा। चिंता से रोटी जल्दी नहीं पकती।”
उस रात मैंने गीता का श्लोक 38 फिर से पढ़ा। और इस बार वो सिर्फ शब्द नहीं थे — वो पापा की मुस्कुराहट बन चुके थे।
ये कहानियाँ बताती हैं...
कि समत्व कोई शाब्दिक आदर्श नहीं है। यह हर उस इंसान का अस्त्र है जो हालात से ऊपर उठने की कोशिश करता है — एक रिक्शा चालक, एक छात्रा, एक पिता, या आप।
और अगर आप भी समत्व की ऐसी ही कोई कहानी जी चुके हैं, तो हमें जरूर बताइए — कमेंट में, या अपने किसी प्रिय को ये पोस्ट भेजकर।
अगले भाग में, जानेंगे — श्लोक 38 और आत्मा की आवाज़ का रिश्ता। क्या हम सच में अपने भीतर की बात सुनते हैं? और गीता उसमें क्या रोल निभा सकती है?
जब धर्म का युद्ध घर में हो: Internal Kurukshetra
हर किसी की ज़िंदगी में कभी न कभी एक ऐसा मोड़ आता है, जब ‘कर्तव्य’ और ‘डर’
कभी ऑफिस की साजिशें, कभी रिश्तों की ठंडक, कभी अपने ही मन का टूटा हुआ आईना — सब मिलकर उस युद्ध को जन्म देते हैं। और तब... कृष्ण की वो पंक्ति, “सुखदुःखे समे कृत्वा...” सिर्फ श्लोक नहीं रह जाती — वो आवाज़ बन जाती है, दिल के अंदर से आती हुई।
ऑफिस की राजनीति और मेरी resignation letter
एक बार मेरे साथ हुआ था — ऑफिस में एक प्रोजेक्ट था, मेहनत मेरी, क्रेडिट किसी और का। कुछ नहीं कहा, अगले दिन मीटिंग में वही इंसान मुझे सुनाने लगा। सब देख रहे थे। दिल बैठ गया। लेकिन तब भी चुप रहा।
उस रात घर आया, और चुपचाप laptop खोला। resignation letter लिखा… पर भेजा नहीं। उंगलियाँ काँप रहीं थीं। जैसे अर्जुन के हाथ काँपे थे।
“क्या मैं हार रहा हूँ?” “क्या डर मुझे चला रहा है?” “क्या ये युद्ध सही है?”
यही सवाल मेरे मन में भी थे।
लेकिन फिर मैंने वो पुरानी कॉपी निकाली… गीता। और फिर से वही श्लोक — “ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।”
तो क्या ये युद्ध भी एक धर्मयुद्ध है? शायद हाँ। क्योंकि जब आप खुद के सम्मान के लिए खड़े होते हैं — जब आप अपने सच को आवाज़ देते हैं — तो वो धर्म है।
रिश्तों की ठंडक और वो awkward dinner
एक और युद्ध हुआ था, घर में — चुप्पी के साथ। पापा से अनबन हो गई थी। मुद्दा बड़ा नहीं था, लेकिन ego… वो तो घर का सबसे बड़ा दुश्मन होता है, न?
दो दिन तक खाना टेबल पर आया, पर न नज़रें मिलीं, न शब्द। माँ बीच में थी — चुप, बेचैन।
तीसरी रात, मैंने plate में दाल परोसते हुए धीमे से कहा — "पापा, मैंने भी overreact किया था।"
वो बोले — "तो क्या मैं सही था? नहीं। बस… बात करना मुश्किल हो गया था।"
उस दिन समझ आया — रिश्तों में युद्ध जीतने से नहीं, समत्व से समाधान निकलता है। कर्तव्य कभी-कभी बोलना भी होता है… और कभी-कभी चुप रह जाना।
अपने ही मन से हारना
कभी आपने महसूस किया है — जब बाहर सब ठीक है, लेकिन अंदर कोई storm चल रहा है?
2021 में एक personal goal miss हो गया था। Instagram खोला, सबकी success देखी… और लगा — “मुझसे तो कुछ नहीं होगा।”
मन ने खुद को हराना शुरू कर दिया था। और उसी समय याद आया — “कर्म करो, फल की चिंता मत करो।”
ये कहना आसान है। लेकिन जब आपको खुद पर शक हो, तब… ये शब्द लाइफलाइन बन जाते हैं।
मैंने meditation शुरू किया, किताबें पढ़ीं, और सबसे पहले — खुद को माफ किया। क्योंकि असली ‘युद्ध’ वहाँ होता है — जहाँ हम खुद को सज़ा देते हैं, बिना वजह।
आज भी जब मन लड़खड़ाता है, मैं खुद से कहता हूँ — "श्लोक 38 पढ़। फिर से पढ़।" और पढ़ते ही सब साफ़ हो जाता है। जैसे कोहरा हट गया हो।
धर्म का युद्ध सिर्फ महाभारत में नहीं होता...
हर ऑफिस में एक कुरुक्षेत्र है, हर घर में, और हर दिल में। फर्क बस इतना है कि वहाँ रथ नहीं होता, न अर्जुन का गांडीव।
बस एक मन होता है — जो डरा हुआ है। और एक आवाज़ होती है — जो कहती है… “उठो, और युद्ध करो।”
अगले भाग में, हम देखेंगे — कैसे श्लोक 38 हमें decision-making में clarity देता है, और कैसे यह modern life में mental resilience का स्तम्भ बन सकता है।
6. Indian Culture में समत्व की जड़ें
सच कहूँ, समत्व की बात जब पहली बार गीता में पढ़ी, तो लगा — “क्या ये सिर्फ एक फिलॉसफी है?” लेकिन जैसे-जैसे ज़िंदगी बढ़ी, एहसास हुआ — हमारी पूरी भारतीय संस्कृति इस ‘समत्व’ की जड़ों से जुड़ी हुई है।
ये कोई नया विचार नहीं है। समत्व हमारे लोकगीतों, सूक्तियों, और त्योहारों में बसा है — बस हमें उसे फिर से देखना है।
कबीर का वो ताना — "सुख में सुमिरन ना किया..."
बचपन में दादी जब कबीर के दोहे सुनाती थीं, तो लगता था — बड़ी उलझी भाषा है। लेकिन एक दिन उन्होंने गाया:
"सुख में सुमिरन ना किया, दुख में किया याद
कह कबीर वो क्या करे, जो सिर पर आवे नाद"
कबीर यहाँ भी वही कह रहे हैं — समत्व! सुख में भी उसी प्रभु को याद करो, दुख में भी।
क्योंकि अगर तुम भावनाओं में बह गए — तो क्या फर्क रह गया अर्जुन और दुर्योधन में?
भारतीय दर्शन हमें यही सिखाता है — भावनाएं बुरी नहीं हैं, लेकिन उनका गुलाम बनना… वो खतरा है।
गुरु गोबिंद सिंह का ‘सवा लाख’ और साहसी समत्व
जब इतिहास की किताब में पहली बार पढ़ा — “सवा लाख से एक लड़ाऊँ…” तो लगा — ये तो सिर्फ बहादुरी है।
लेकिन बाद में महसूस किया — ये सिर्फ भौतिक युद्ध की बात नहीं थी। यह उस आंतरिक विश्वास और समत्व की बात थी, जो किसी योद्धा को डर से परे खड़ा कर देता है।
गुरु गोबिंद सिंह जी ने जब अपने चारों साहिबज़ादों की शहादत देखी, तब भी उनका मन डगमगाया नहीं। क्यों?
क्योंकि उन्होंने अपने भीतर एक ऐसा संतुलन विकसित कर लिया था — जिसे गीता के श्लोक 38 की आत्मा कहा जा सकता है।
आज अगर हम अपने बच्चों को ये सिखा पाएं — कि असली वीरता हार-जीत में नहीं, बल्कि मन की स्थिरता में है — तो शायद समत्व अगली पीढ़ी में सांस ले पाएगा।
होली की होलिका — समत्व की अग्नि
हर साल होली की पूर्व संध्या पर हम ‘होलिका दहन’ करते हैं। लोग सोचते हैं — यह अहंकार की हार है। लेकिन क्या यह सिर्फ अहंकार की बात है?
दरअसल, यह भीतर के अहंकार, लालच, द्वेष को जलाने की प्रक्रिया है। और जब हम उन भावनाओं को तिलांजलि देते हैं — तब ही समत्व के बीज अंकुरित होते हैं।
मुझे याद है, एक होली पर मैंने अपने एक पुराने दोस्त से सालों बाद माफ़ी मांगी थी। वो भी चुप था… फिर बोला — "चल, बुरा ना मानो होली है।"
उस दिन मैंने पहली बार समझा कि समत्व सिर्फ स्थिर रहना नहीं — बल्कि पहल करने की हिम्मत भी है।
समत्व: भारतीय परंपरा की वो कड़ी जो सब जोड़ती है
रामायण में राम का बनवास — समत्व।
बुद्ध का राजपाट छोड़ना — समत्व।
मीरा की दीवानी भक्ति — समत्व।
हर परंपरा, हर परछाईं, हर पर्व हमें एक ही बात सिखाता है — “जो भी हो, स्थिर रहो। और अपने कर्तव्य से मत डिगो।”
और यही श्लोक 38 कहता है — सुख-दुख, हानि-लाभ, जय-पराजय... सब एक से देखो।
अगले भाग में जानेंगे — जीवन की व्यस्तता में गीता को कैसे जिया जाए? कैसे हम WhatsApp, Instagram और office deadlines के बीच भी श्लोक 38 को महसूस कर सकते हैं?
7. Daily Life में समत्व का अभ्यास
समत्व कोई इंस्टाग्राम ट्रेंड नहीं है। ये कोई Sunday podcast से सीखी हुई आदत नहीं है जिसे Monday को छोड़ दिया जाए।
ये एक साधना है — धीरे-धीरे, बार-बार, खुद से लड़ते हुए सीखी जाने वाली।
और सच कहूं — यह आसान नहीं है। लेकिन क्या जरूरी चीजें कभी आसान होती हैं?
Morning Routine: गीता का श्लोक और 5 मिनट की चुप्पी
मेरे दिन की शुरुआत अब सिर्फ चाय से नहीं होती। अब एक आदत जुड़ गई है — गीता का कोई एक श्लोक पढ़ना और पाँच मिनट कुछ न करना। बस बैठ जाना।
पहले-पहले बड़ा अजीब लगता था। 5 मिनट में दिमाग 50 जगह भाग जाता था — ऑफिस का प्रेजेंटेशन, WhatsApp का जवाब, पड़ोसी की loud voice।
लेकिन फिर धीरे-धीरे, एक शांति उतरने लगी। और वो सबसे पहली बार जब मैंने सिर्फ अपनी सांस की आवाज सुनी… मुझे लगा — यही तो था वो ‘संतुलन’ जिसकी बात श्लोक 38 करता है:
"सुखदुःखे समे कृत्वा..." — वही पंक्ति जो अब अलार्म की तरह नहीं, मंत्र की तरह दिन शुरू करती है।
ध्यान और आध्यात्मिक रुटीन के लिए हमारी विशेष पोस्ट भी देख सकते हैं।
'Feedback' को 'फैसला' ना बनाओ — एक सच्चा अनुभव
पिछले साल मैंने एक webinar होस्ट किया था। 200 लोग जुड़े थे।
सभी ने तारीफ की, लेकिन एक comment आया — “Presenter lacks clarity.”
बस… वही एक comment मेरे दिमाग में गूंजता रहा। बाकी 199 गायब।
मैं पूरी रात सो नहीं पाया। सुबह गीता खोली, और फिर से पढ़ा — "जय-पराजय समे कृत्वा..."
वहीं समझ आया — फीडबैक सुनो, लेकिन उस पर identity मत टिको।
कृष्ण ने अर्जुन से यही तो कहा था — “लोग क्या कहेंगे?” इस चिंता से बड़ा युद्ध कुछ नहीं।
उस दिन से मैंने एक mantra बना लिया है: Feedback ≠ Final Verdict
समत्व vs Social Media: हर like को validation मत बनाओ
हम आज एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं, जहां “likes” ने हमारी आत्मा की सुकून को खरीद लिया है। एक post viral हुआ, तो हम खुश। नहीं हुआ, तो हम बेचैन।
लेकिन क्या आत्मा इतनी सस्ती होनी चाहिए?
समत्व यही सिखाता है — “जो है, उसे सम्मान दो। जो नहीं है, उसे स्वीकारो। लेकिन खुद को मत खोओ।”
मैंने Insta से notifications बंद कर दिए। अब हर शाम मैं पोस्ट तो करता हूँ, लेकिन इंतजार नहीं करता। और oddly enough, अब लोगों की बातें ज्यादा सच्ची लगती हैं।
क्योंकि अब मुझे किसी validation की नहीं, connection की ज़रूरत है।
समत्व: हर दिन की वो छोटी सी विजय
आपका boss आपसे नाराज़ हो, लेकिन आप शांत रहें — वो समत्व है।
आपका partner silent treatment दे, लेकिन आप समझदारी दिखाएं — वो समत्व है।
आपका खुद पर doubt आए, और फिर भी आप कोशिश करें — वही असली समत्व है।
गीता के श्लोक 38 ने मुझे यही सिखाया — “बाहर की जीत कोई मायने नहीं रखती, अगर अंदर हार हो गई हो।”
इसलिए मैं कहता हूँ — समत्व कोई Instagram hack नहीं है, ये ज़िंदगी जीने का तरीका है।
अगले भाग में हम देखेंगे — कैसे भारतीय परंपराएँ और rituals गीता के इस समत्व को celebrate करती हैं… दीपावली से लेकर मकर संक्रांति तक!
8. त्योहारों में समत्व की अभिव्यक्ति
कभी गौर किया है, हमारे भारतीय त्योहार अक्सर विरोधाभासों को साथ लेकर चलते हैं? होली में हंसी भी है, ज्वाला भी। दिवाली में उजाला भी है, अंधेरे की स्मृति भी।
और शायद यही कारण है कि भगवद गीता के “सुखदुःखे समे कृत्वा...” की आत्मा इन पर्वों में बसी हुई है।
दिवाली: अंधेरे से डरना नहीं, उसका सामना करना
हर साल जब दीयों की रोशनी जलती है, हम कहते हैं — "अंधेरे पर उजाले की जीत"। लेकिन कभी सोचा, क्या अंधेरा सिर्फ बिजली न होने का नाम है?
या वो डर जो रिजेक्शन के बाद आता है? या वो खालीपन जब कोई अपना छोड़ जाए?
दिवाली मुझे हर साल यही याद दिलाती है — कोई फर्क नहीं पड़ता कितनी रातें अंधेरी हों, एक दीया काफी है।
और यही श्लोक 38 की सीख है — अंधेरे से लड़ो नहीं, उसे समझो।
दिवाली पर मेरा लिखा एक लेख: "रोशनी सिर्फ बाहर नहीं, भीतर भी जलनी चाहिए।"
होली: रंगों में समत्व की स्याही
होली पर गली के नुक्कड़ से लेकर WhatsApp स्टेटस तक, सबकुछ रंगीन हो जाता है। लेकिन जब होलिका दहन होता है, तो मुझे लगता है — कहीं ये आग सिर्फ लकड़ियाँ नहीं जला रही… ये भीतर की 'होलिका' को भी भस्म कर रही है।
मैं कभी 2020 की होली नहीं भूलूंगा। लॉकडाउन से एक दिन पहले की होली थी। सब डर में थे, फिर भी लोगों ने दीये जलाए, गुलाल लगाया — बिना किसी गिले-शिकवे के।
और वहीं मैंने महसूस किया — समत्व का मतलब ये नहीं कि दुःख न हो। बल्कि रंगों में भी वो स्थिरता बनाए रखना, वही असली समत्व है।
रक्षाबंधन: रिश्तों की डोर में संतुलन
रक्षाबंधन पर जब मेरी बहन ने मुझे राखी बाँधी, मैंने देखा — इस रिश्ते में कितना प्यार है, लेकिन साथ ही कितनी उम्मीदें भी।
कभी लगता है — भाई हमेशा protector क्यों हो? या बहन ही क्यों बांधे?
लेकिन फिर गीता की एक बात याद आई — कर्तव्य निभाओ, बिना भेदभाव।
उस साल मैंने अपनी बहन से कहा — “तू भी मेरी रक्षा कर, बस भावनात्मक रूप से।” और हम दोनों हँस दिए।
समत्व शायद यही है — रिश्तों में सिर्फ अधिकार नहीं, समझदारी भी लाना।
मकर संक्रांति: ऊपर उड़ने से पहले संतुलन पाना
पतंग उड़ती है — और हम चिल्लाते हैं, “वो काटा!” लेकिन कोई ये नहीं पूछता कि हवा कैसी थी? डोर कितनी टाइट थी?
जैसे जीवन — ऊपर जाना सब चाहते हैं, लेकिन मन का धागा खिंचता रहे तो उड़ान भी थकाती है।
मकर संक्रांति के दिन मुझे सबसे ज्यादा समत्व का अहसास होता है। जब हम तिल-गुड़ बाँटते हैं — मीठा बोलने की प्रेरणा मिलती है।
क्योंकि गीता यही कहती है — “मीठा बोलना भी एक तप है।”
त्योहारों में छिपा वो ‘मौन’ जो सब सिखा देता है
मैंने ये महसूस किया है — असली ज्ञान शोर में नहीं, त्योहारों की चुप्पियों में छिपा होता है।
जब रात की पूजा हो जाए, और सब दीप बुझे हों… तब जब माँ silently बातियों को समेटती है — वो मौन कुछ कहता है।
और वही श्लोक 38 का स्वर है — “हर जीत-हार के बाद थोड़ा चुप रहो। वहीं आत्मा बोलती है।”
अगर आपने कभी त्योहारों को सिर्फ सेलिब्रेशन नहीं, साधना की तरह देखा है, तो बताइए — कौन सा पर्व आपको सबसे ज़्यादा ‘स्थिरता’ का एहसास कराता है?
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